Book Title: Jain Dharm ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Johrimal Jain Saraf

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Page 97
________________ अजेनों को जैन दीक्षा ८७ samannannanananananasrannannammannannnnnnnnnnnnnnnnn ____(8) नागदत्ता अजैन थी। उसकी कन्या धनश्री वसुमित्र वैश्य (जैन) को विचाही थी । वसुमित्र ने धनश्री को जैन वना लिया और धनश्री ने अपनी माता को जैन बना लिया। कैसी सुन्दर उदारता है, कैसा अनुकरणीय उद्धारक मार्ग है ? पूर्वाचार्य अजैनों को जैन दीक्षा देकर धर्म प्रचार का कार्य करते थे। किन्तु आजकल हमारे साधुओं में इतनी उदारता नहीं है। मूलाचार में आचार्य के लक्षण बताते हुये लिखा है कि 'संगहणुग्गह कुसलो' अर्थात् आचार्य का कर्तव्य है कि वह नये मुमुक्षुओं की जैन दीक्षा देकर उनका संग्रह करने और अनुग्रह करने में कुशल हो । कथा ग्रंथों से ज्ञात होता है कि कई जैन साधु प्रति दिन कुछ न कुछ नये लोगों को जैन बनाते थे। माघनन्दि आचार्य ५० नये जैन बनाकर ही आहार करते थे। किन्तु खेद का विषय है कि वर्तमान में जैन मुनिराज जैनों का बहिकार कराते हैं, अमुक जैन जाति के साथ खान पान नहीं रखना, इत्यादि नियम कराते हैं। और आपस आपस में मुनि लोग एक दूसरे की बुराई करके जुदा जुदा गुट्ट बनाते हैं। इसे देख कर भद्रबाहु चरित्र में वर्णन किये गये चन्द्रगुप्त के १४ स्वप्न का फल याद आजाता है कि रजसाच्छादितरुद्ररत्नराशेरीक्षणतो भृशम् । करिष्यन्ति नपाःस्तेयां निर्ग्रन्थ मुनयो मिथः ॥४७॥ अर्थात्-धूलिसे आच्छादित रत्नराशि के देखने से मालूम होता है कि निग्रन्थमुनि भी परस्परमें निन्दा करने लगेंगे । वास्तव में हुआ भी ऐसा ही । यदि अभी भी हमारे साधुगण अपने कर्तव्यका पालन करें तो हजारों नये जैन प्रतिवर्ष बन सकते हैं । जैनधर्म सरीखी उदारता तो अन्य किसी भी धर्म में नहीं है । बाबू

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