Book Title: Jain Dharm ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Johrimal Jain Saraf

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Page 113
________________ सम्मतियां १०३ मनुष्य जाति का भारी उपकार होगा। मैं इसका गुजराती अनुवाद छपाकर प्रचार कर रहा हूँ । (१६) प्रोफेसर चन्द्रशेखरजी शास्त्री एम. ओ. पी. एच. देहली लेखकने प्रत्येक विपयको शास्त्रीय प्रमाणों से सिद्ध किया है। वास्तव में पुस्तक अति उत्तम है । घर घर में इसका आदर होगा । (१७) पं० भगवंत गणपति गोयलीय सागर- जैनधर्म की उदारता में जैन ग्रंथों की ताजीरात से पतितों का उद्धार, ऊंच नीच की समता, वर्ग गोत्र परिवर्तन तथा शूद्रों और स्त्रियों के उच्चाधिकार आदि को ऐसा सिद्ध किया है कि एक बार कूपमण्डूकताका एकान्त पुजारी भी सहम उठेगा । इसे लिखकर अपने समाज के अंधेरे मस्तिष्क में प्रकाश फैंकने का प्रयत्न किया है । G (१८) वा० माईदयालजी जैन बी० ए० ( श्रानर्स ) वी० टी० अम्बाला- पुस्तक मननीय, पठनीय और प्रचार योग्य है । जैनधर्म और जैन समाजका गला अनुदारताकी रस्सी से संध रहा है । लेखक ने उस फंदे को ढीला करने का प्रयत्न किया है । (१) भारत विख्यात उपन्यास लेखक वा जैनेन्द्रकुमारजी देहली- जो उदार नहीं है वह धर्मका अपलाप है । यदि समाज को अपनी अनुदारता का कुछ भी मान हो जाय तो पुस्तक लिखने के उद्देश्य की सिद्धि समझनी चाहिये ।

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