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अजैनों को जैन दीक्षा और न ऊंची जाति का कहलाने से ही कोई बड़ा हो जाता है । क्योंकि गुणहीन की कौन वंदना करेगा? गुणों के बिना कोई श्रावक या मुनि भी नहीं कहा जासकता। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि गुणों के आगे जाति या कुल भी कोई कीमत नहीं है। अकुलीन
और नीच जाति के कहे जानेवाले अनेक गुणवान महापुरुप वन्दनीय हो गये हैं और हो सकते हैं जव कि बड़ी जाति और बड़े कुलके कहे जाने वाले अनेक गोमुखव्याघ्र नीच से नीच माने गये हैं। इसलिये जाति मद को छोड़कर गुणों की पूजा करना चाहिये।
अजैनों को जैन दीक्षा। जैन धर्म की एक विशेष उदारता यह है कि उसमें दूसरे धर्मावलम्बियों को दीक्षित करके समान अधिकार दिये जाते हैं ।
आदिपुराण के पर्व ३६ में श्लोक ६० से ७१ तक देखने से यह उदारता भली भांति सालूम हो जायगी । इस प्रकरण में स्पष्ट कहा
किं "विधिवत्सोऽपि तं लब्ध्वा याति तत्समकक्षतां ॥" इसी ' विषय को टीकाकार पं० दौलतरामजी ने इस प्रकार लिखा है:
"वह भव्य पुल्प जो व्रत के धारक उत्तम श्रावक हैं, तिनसू कन्या प्रदानादि सम्बन्ध की इच्छा जाकै सो चार श्रावक बड़ी क्रिया के धारक तिनकू बुलाइ कर यह कहै-गुरु के अनुग्रह तें अयोनिसभव जन्म पाया, आप सरीखी क्रियाओं का आचरण करूं हूँ आदि, आप मोहि समान करौ। वे श्रावक बाकी प्रशंसा करि वर्णलाभ क्रिया द्वारा ताहि मुक्त करें, पुत्र पुत्रीन का सम्बन्ध यासू करें।" इत्यादि।
अजैनों को जैन बनाकर उनकी प्रतिष्ठा किये जाने के सैकड़ों