Book Title: Jain Dharm ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Johrimal Jain Saraf

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Page 90
________________ जैनधर्म को उदारता अर्थात-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्ध यह जातियां तो वास्तव में आचरण पर ही आधार रखती हैं। वैसे सचमुच में।तो एक मनुप्य जातिही है। इससे सिद्ध है कि कोई एक जाति का पुरुष दूसरी जाति के आचरण करने पर उसमें पहुंच सकता है। यदि इन जातियों में वास्तविक भेद माना जाय तो प्राचार्य कहते हैं कि भेदे जायते विप्राणां क्षत्रियो न कथंचन । शालिजाती मया दृष्टः कोद्रवस्य न संभवः ।। अर्थात्-यदि इन जातियों का भेद वास्तविक होता तो एक ब्राह्मणीसे कभी क्षत्रिय पुत्र पैदा नहीं होना चाहिये था (किन्तु होता है क्योंकि चावलों की जाति में मैंने कभी कोदों को उत्पन्न होते नहीं देखा है। ___इससे स्पष्ट सिद्ध है कि आचार्य महाराज जातियों को परम्परागत स्थायी नहीं मानते हैं । और ब्राह्मणी के गर्भ से क्षत्रियसंतान होना स्वीकार करते हैं। फिरभी समझ में नहीं आता कि हमारे आधुनिक स्थितिपालक पण्डित लोग जातियों को अजर अमर किस आधार पर मान रहे हैं ! और असवर्ण विवाह का निषेध कैसे करते हैं! जहां आचर्य महाराज ब्राह्मणीके गर्भसे क्षत्रिय संतान का होना मानते हैं वहां हमारे पण्डित लोग उसे धर्म का अनधिकारी बताते हैं और कहते हैं कि उसकी पिण्ड शुद्धि नहीं रहेगी। इस प्रकार पिण्ड शुद्धि को धर्म से बढ़कर मानने वालोंके लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है: णवि देहोचंदिज्जह णवि य कुलो णवि य जाइ संजुत्तो। को बंदिम गुणहीणो णहु सवणा व सावत्रो होई॥ अर्थात्-न तो देह की वंदना होती है न कुल की होती है

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