Book Title: Jain Dharm ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Johrimal Jain Saraf

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Page 19
________________ परमेष्टिने नमः जैनधर्म की उदारतात पापियों का उद्धार । जो प्राणियों का उद्धारक हो उसे धर्म कहते हैं। इसी लिये धर्म का व्यापक,सावं या उदार होना आवश्यक है । जहां संकुचित दृष्टि है, स्वपर का पक्षपात है, शारीरिक अच्छाई चुराई के कारण आन्तरिक नीच ऊँचपने का भेद भाव है वहां धर्म नहीं हो सकता धर्म आत्मिक होता है शारीरिक नहीं । शरीर की दृष्टि से तो कोई भी मानव पवित्र नहीं है। शरीर सभी अपवित्र हैं। इसलिये आत्मा के साथ धर्म का संबंध मानना ही विवेक है। लोग जिस शरीर को ऊँचा समझते हैं उस शरीर वाले कुगति में भी गये हैं और जिनके शरीर नीच समझे जाते हैं वे भी सुगति को प्राप्त हुये हैं। इसलिये यह निर्विवाद सिद्ध है कि धर्म चमड़े में नहीं किन्तु आत्मा में होता है । इसी लिये जैन धर्म इस बात को स्पष्टतया प्रतिपादित करता है कि प्रत्येक प्राणी अपनी सुकृति के अनुसार उच्च पद प्राप्त कर सकता है । जैन धर्म का शरण लेने के लिये उसका द्वार सबके लिये सर्वदा खुला है। इस बात को रविपेणाचार्य ने इस प्रकार स्पष्ट किया है कि अनाथानामवंधूनां दरिद्राणां सुदुःखिनाम् । जिनशासनमेतद्धि परमं शरणं मतम् ।। अर्थात--जो अनाथ है, वांधव विहीन हैं, दरिद्री है, अत्यन्त दुबी हैं उनके लिए जैन धर्ग परम शरणभुत है ।

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