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जैनधर की उदारता को भूलकर विपरीत मार्ग को भी धर्म समझ रही हो। जैसे सम्पत्ति का अधिकारी पुत्र तो होता है किन्तु पुत्रियों को उसका अधिकारी । नहीं माना जाता है। ऐसा क्यों होता है ? क्या पुत्र की भांति पुत्री को माता : माह पेट में नहीं रखती ? क्या पुत्र के समान पुत्री के जनने में कष्ट नहीं सहती ? क्या पुत्र की भांति पुत्री के पालन पोषण में तकलीफें नहीं होती ? बतलाइये तो सही कि पुत्रियां क्यों न पुत्रों के समान सम्पत्ति की अधिकारणी हों। हमारे जैन शाखों ने तो इस संबंध में पूरी उदारता बताते हुए स्पष्ट लिखा है कि"पुज्यश्च संविभागार्हाः समं पुत्रैः समांशकैः" ॥१५४॥
-आदिपुराण पर्व ३८। अर्थात्-पुत्रों की भांति पुत्रियों को भी बराबर भाग वांट कर ६ना चाहिये।। ___ इसी प्रकार जैन कानून के अनुसार स्त्रियों को, विधवाओं को या कन्याओं को पुरुष के समान ही सब प्रकार के अधिकार है। इसके लिये विद्यावारिधि जैन दर्शन दिवाकर पं० चंपतरायजी जैन बैरिस्टर कृत 'जैनलो' नामक ग्रन्थ देखना चाहिये।
जैन शास्त्रों में स्त्री सन्मान के भी अनेक कथन पाये जाते हैं। जब कि मूद जनता स्त्रियों को पैर की जूती या दासी समझती है. तब जैन राजा महाराजा अपनी रानियों का उठकर सन्मान करते थे और अपना अर्धासन बैठने को देते थे । भगवान् महावीर स्वामी की माता महारानी प्रियकारिणी जव अपने स्वप्नों का फल , पूछने महाराजा सिद्धार्थ के पास गई तव महाराजा ने अपनी धर्मपत्नी को आधा आसन दिया और महागनी ने उस पर बैठ कर अपने स्वप्नों का वर्णन किया । यथा"संप्राप्ताद्धासना स्वप्नान् यथाक्रममुदाहरत् ।।"
-उत्तरपुराण।