Book Title: Jain Dharm ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Johrimal Jain Saraf

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Page 73
________________ वैवाहिक उदारता थे और न उन्हें कोई घृणा की दृष्टि से देखता था *। ___ मगर खेद है कि आज कुछ दुराग्रही लोग कल्पित उपजातियों खण्डेलवाल, परवार, गोलालारे, गोलापूर्व, अग्रवाल, पद्मावती पुरवाल, हूमड़ आदि में परस्पर विवाह करने से धर्म को बिगड़ता हुआ देखने लगते हैं। जैन शास्त्रों में वैवाहिक उदारता के सैकड़ों स्पष्ट प्रमाण पाये जाते हैं। भगवजिनसेनाचार्य ने आदिपुराण में लिखा है किशूद्रा शूद्रेण वौढव्या नान्या स्वां तां च नैगमः। वहेत स्वां ते च राजन्यः स्वां द्विजन्मा किचिच्चताः॥ अर्थात्-शूद्र को शूद्र की कन्या से विवाह करना चाहिये, वैश्य वैश्य की तथा शूद्र की कन्या से विवाह कर सकता है, क्षत्रिय अपने वर्ण की तथा वैश्य और शूद्र की कन्या से विवाह कर सकता है और ब्राह्मण अपने वर्ण की तथा शेप तीन वर्ण की कन्याओं से भी विवाह कर सकता है। __इतना स्पष्ट कथन होते हुए भी जो लोग कल्पित उपजातियों में (अन्तर्जातीय) विवाह करने में धर्म कर्म की हानि समझते हैं उनकी बुद्धि के लिये क्या कहा जाय ? अदीर्घदर्शी, अविचारी एवं हठयाही लोगों को जाति के झूठे अभिमान के सामने आगम और युक्तियां व्यर्थ दिखाई देती हैं । जब कि लोगों ने जाति का हठ पकड़ रखा है तब जैन ग्रंथों ने जाति कल्पना की धज्जियां उड़ादी है। यथा___ * इस विषय को विस्तार पूर्वक एवं सममाण जानने के लिये श्री. पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार लिखित 'विवाह क्षेत्र प्रकाश' देखने के लिये हम पाठकों से साग्रह अनुरोध करते हैं।

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