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उच्च और नीचां में समभाव नहीं बनाया जाता, वह तो स्वयं ऊँच हैं ही, मगर जो भ्रष्ट हैं, पदच्युत हैं, पतित हैं, उन्हें जो उच्च पद पर स्थित करदे वही उदार एवं सच्चा धर्म है । यह खूबी इस पतित पावन जैनधर्म में है। इस रबंध में जैनाचायों ने कई स्थानों पर स्पष्ट विवेचन किया है पंचाध्यायीकार ने स्थितिकरण अंगका विवेचन करते हुये लिखा है कि
सुस्थितीकरणं नाम परेपां सदनुग्रहात् । भ्रष्टानां स्वपदात्तत्र स्थापनं तत्पदे पुनः॥ ८०७ ॥ अर्थात-निज पदसे भ्रष्ट हुये लोगों को अनुग्रह पूर्वक उसी पद में पुनः स्थित कर देना ही स्थितिकरण अंग है।
इस से यह सिद्ध है कि चाहे जिस प्रकार से भ्रष्ट या पतित हुये व्यक्तिको पुनः शुद्ध कर लेना चाहिये और उसे फिर से अपने उच्च पद पर स्थित कर देना चाहिये । यही धर्म का वास्तविक अंग है। निर्विचिकित्सा अंग का वर्णन करते हुये भी इसी प्रकार उदारतापूर्ण कथन किया गया है । यथा
दुर्दैवाढुःखिते पुसि तीब्रासाताघृणास्पदे । यन्नादयापरं चेतः स्मृतो निर्विचिकित्सकः ॥५८३ अर्थात्-जोपुरुष दुर्दैव के कारण दुखी है औरतीव्र असाता के कारण घृणा का स्थान बन गया है उसके प्रति अदयापूर्ण चित्त का न होना ही निर्विचिकित्सा है।
बड़े ही खेद का विषय है कि हम आज सम्यक्तके इस प्रधान अंग को भूल गये हैं और अभिमान के वशीभूत होकर अपने को ही सर्व श्रेष्ठ समझते हैं । तथा दीन दरिद्री और दुखियों को नित्य ठुकरा कर जाति मद में मत्त रहते हैं। ऐसे अभिमानियों का