Book Title: Jain Dharm ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Johrimal Jain Saraf

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Page 26
________________ जैनधर्म की उदारता मस्तक नीचा करने के लिये पंचाध्यायीकार ने स्पष्ट लिखा है कि नैतत्तन्मनस्यज्ञानमस्म्यहं सम्पदा पदम् । नासावस्मत्समो दीनो वराको विपदां पदम् ।।५८४॥ अर्थात-मन में इस प्रकार का अज्ञान नहीं होना चाहिये कि मैं तो श्रीमान हूं, बड़ा हूँ, अतः यह विपत्तियों का मारा दीन दरिद्री मेरे समान नहीं हो सकता है। प्रत्युत प्रत्येक दीन हीन व्यक्ति के प्रति समानता का व्यवहार रखना चाहिये । जो व्यक्ति जाति मद या धन मद में मत्त होकर अपने को बड़ा मानता है वह मूर्ख है, अज्ञानी है । लेकिन जिसे मनुष्य तो क्या प्राणीमात्र सहश मालूम हों वही सम्यग्दृष्टि है, वही ज्ञानी है, वही मान्य है, वही उच्च है, वही विद्वान है, वही विवेकी है और वही सच्चा पण्डित है। मनुष्यों की तो वात क्या किन्तु उस स्थावर प्राणीमात्र के प्रति सम भाव रखने का पंचाध्यायीकार ने उपदेश दिया है। यथा-- प्रत्युत ज्ञानमेवैतत्तत्र कर्मविपाकजाः । प्राणिनः सदृशाः सर्वे त्रसस्थावरयोनयः ॥८॥ अर्थात्-दीन हीन प्राणियों के प्रति घृणा नहीं करना चाहिये प्रत्युत ऐसा विचार करना चाहिये कि कर्मों के मारे यह जीव अस और स्थावर योनि में उत्पन्न हुये हैं, लेकिन है सव समान ही। तात्पर्य यह है कि ऊँच नीच का भेदभाव रखने वाले को महा अज्ञानी बताया है और प्राणीमात्र पर सम भाव रखने वाले को सम्यग्दृष्टि और सच्चा ज्ञानी कहा है । इन बातों पर हमें विचार करने की आवश्यक्ता है । जैनधर्म की उदारता को हमें अव कार्य रूप में परिणत करना चाहिये । एक सच्चे जैनी के हृदय में न तो जाति मद हो सकता है, न ऐश्वयं का अभिमान हो सकता है और ' न पापी या पतितों के प्रति घृणा ही हो सकती है। प्रत्युत वह तो

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