Book Title: Jain Dharm ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Johrimal Jain Saraf

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Page 61
________________ जैनधर्म में शूद्रों का अधिकार वैदिकों के द्वारा तिरस्कृत हुआ तब उसने जनधर्म की शरण ली और जैन दीक्षा लेकर असाधारण महात्मा बन गया। __इस प्रकार जिस जैनधर्म ने वैदिकों के अत्याचार से पीडित प्राणियों को शरण देकर पवित्र बनाया, उन्हें उच्च स्थान दिया और जाति मद का मर्दनकिया, वही पतित पावन जैनधर्म वर्तमान के स्वार्थी, संकुचित दृष्टि एवं जाति मदमत्त जैनों के हाथों में आकर बदनाम हो रहा है । खेद है कि हम प्रति दिन शास्त्रों की स्वाध्याय करते हुये भी उनकी कथाओं पर, सिद्धान्त पर, भथवा अन्तरंग दृष्टि पर ध्यान नहीं देते हैं। ऐसी स्वाध्याय किस काम की ? और ऐसा धर्मात्मापना किस काम का ? जहां उदारता से विचार न किया जाय। जैनाचार्यों ने प्रत्येक शूद्र की शुद्धि के लिये तीन बातें मुख्य बताई हैं । १-मांस मदिरादि त्याग करके शुद्ध आचारवान हो, २-आसन वसन पवित्र हो, ३-और स्नानादि से शरीर की शुद्धि हो। इसी बात को श्रीसोमदेवाचार्य ने 'नीतिवाक्यामृत' में इस ' प्रकार कहा है "आचारानवद्यत्वंशुचिरुपस्कारः शरीरशुद्धिश्च करोति शुद्रानपि देवद्विजातितपस्विपरिकर्मसु योग्यान्।" इस प्रकार तीन तरह की शुद्धियां होने पर शूद्र भी साधु होने तक के योग्य हो जाताहै। आशाधरजी ने लिखा है कि"जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ यात्मास्ति धर्मभाक् ।" अर्थात् जाति से ही या नीच होने पर भी कालादिक लब्धिसमयानुकूलता मिलने पर वह जैनधर्म का अधिकारी होजाता है। समन्तभद्राचार्य के कथनानुसार तो सम्यग्दृष्टि चाण्डाल भी देव

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