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जैनधर्म की उदारता.
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में लक्ष्मीमती की कथा है। उसे अपनी ब्राह्मण जाति का बहुत अभिमान था । इसी से वह दुर्गति को प्राप्त हुई । इसलिए ग्रंथकार उपदेश देते हुए लिखते हैं कि
मानतो ब्राह्मणी जाता क्रमाद्धीवरदेहजा ।
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जातिगर्वो न कर्तव्यस्ततः कुत्रापि धीधनैः ॥४५ - १६॥
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अर्थात्-जाति गर्व के कारण एक ब्राह्मणी भी ढीमर की लड़की हुई, इसलिए विद्वानों को जातिका गर्व नहीं करना चाहिये । इधर तो जोति का गर्व न करने का उपदेश देकर उदारतो कां पाठ पढ़ाया है और उधर जाति गर्व के कारण पतित होकर ढीमर 'के यहां उत्पन्न होने वाली लड़की का आदर्श उद्धार बता कर जैन धर्म की उदारता को और भी स्पष्ट किया है । यथा-:
ततः समाधिगुप्तेन सुनीन्द्रेण प्रजल्पितम् । धर्ममाकर्य जैनेन्द्र सुरेन्द्राद्यैः समर्चितम् ॥ २४ ॥ संजाता क्षुल्लिका तत्र तपः कृत्वा स्वशक्तितः । मृत्वा स्वर्गं समासाद्य तस्मादागत्य भूतले ॥ २५ ॥ आराधना कथाकोश नं० ४५ ॥ अर्थात्-समाधिगुप्त मुनिराज के मुख के जैनधर्म का उपदेश सुनकर वह ढीमर (मच्छीमार ) की लड़की क्षुल्लिका होगई और शान्ति पूर्वक तप करके स्वर्ग गई । इत्यादि ।
इस प्रकार से एक शूद्रं ( ढीमर ) की कन्या मुनिराज का उपदेश सुनकर जैनियों की पूज्य क्षुल्लिका हो जाती है । क्या यह जैन धर्म की कम उदारता है ? ऐसे उदारता पूर्ण अनेक उदाहरण तो इसी पुस्तक के अनेक प्रकरणों में लिखे जा चुके हैं और ऐसे ही सैकड़ों उदाहरण और भी उपस्थित किये जा सकते हैं जो जे