Book Title: Jain Dharm ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Johrimal Jain Saraf

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Page 9
________________ नम्र निवेदन (प्रथमावृत्ति) ___ जहां उदारता है, प्रेम है, और समभाव है, वहीं धर्म का निवास है। जगत को आज ऐसे ही उदार धर्मकी आवश्यकता है। हम ईसाइयों के धर्मप्रचार को देखकर ईर्पा करते हैं, आर्य समाजियों की कार्यकुशलता पर आश्चर्य करते हैं और वौद्ध, ईशु खीस्त,दयानन्द सरस्वती आदिके नामोल्लेख तथा भगवान महावीर का नाम न देखकर दुखी हो जाते हैं ! इसका कारण यही है कि उन उन धर्मानुयाइयों ने अपने धर्म की उदारता बताकर जनता को अपनी ओर आकर्पित कर लिया है और हम अपने जैनधर्म की उदारता को दवाते रहे कुचलते रहे और उसका गला घोंटते रहे ! तव वताइये कि हमारे धर्मको कौन जान सकता है ? भगवान महावीर स्वामी को कौन पहिचान सकता है और उदार जैनधर्म का प्रचार कैसे हो सकता है? इस छोटी सी पुस्तक में यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि 'जैनधर्म की उदारता' जगत के प्रत्येक प्राणी को प्रत्येक दशा में अपना सकती है और उसका उद्धार कर सकती है । आशा है कि पाठकगण इसे आद्योपान्त पढ़ कर अपने कर्तव्य को पहिचानेंगे। चन्दावाड़ी सूरत।। परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ

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