Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Kulchandravijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 31
________________ उपसर्ग सहन करे थे तिनका संक्षेपसें ब्यान करो. उ. प्रथम उपसर्ग गोवालीयेने करा १ शूलपाणिके मंदिरमें रहे तहां शूलपाणी यक्षने उपसर्ग करे ते ऐसे अदद हासी करके डराया १ हाथीका रूप करके उपसर्ग करा २ सर्पके रूप में ३ पिशाच के रूप में ४ उपसर्ग करा. पीछे मस्तकमे १ कानमे २ नाकमे ३ नेत्रों मे ४ दांतोमे ५ पुंठकेमं ६ नखेमें ७ अन्य सुकुमार अंगोमें ऐसी पीडा कीनीके जेकर सामान्य पुरुषके एक अंगमेभी ऐसी पीडा होवे तो तत्काल मरण पावे, परं भगवंतनेतो मेरुकी तरें अचल होके अदीन मनसें सहन करे, अंतमे देवता थकके श्री महावीरजीका सेवक बना शांत हुआ. चंडकौशिक सर्पने डंख मारा पर भगवंततो मरा नही, सर्प प्रतिबोध हुआ. सुदंष्ट्र नागकुमार देवताका उपसर्ग संबल कंबल देवतायोंने निवारा. भगवंततो कायोत्सर्गमें खडे थे. लोकोंने बनमे अग्नि बाली लोकतो चले गये पीते अग्नि सूके घासादिकों बालती हुइ भगवंतके पगों हेतु आ गइ, तिसें भगवंतके पग दग्ध हुए परं भगवंतने तो कायोत्सर्ग छोडा नही. तहांही खडे रहे. कटपूतना देवीने माघमासके दिनोमें सारी रात भगवंतके शरीरकों अत्यंत शीतल जल छांटा, भगवंततो चलायमान नही हुए. अंतमे देवी थकके भगवंतकी स्तुति करने लगी. संगम देवताने एक रात्रिमें वीस उपसर्ग करे वे ऐसे है भगवंतके उपर धूलिकी वर्षा करी जिस्से भगवंत के आंख कानादि श्रोत बंद होने से खासोत्साससे रहित हो गये तोभी ध्यानसे नही चले १ पीछे बज्रमुखी कीकीयों बनाके भगवंतका शरीर चालनिवत् सछिद्र करा २ बज्र चूंचवाले दंशोने बहु पीडा करी ३ तीक्ष्ण चूंचवाली धीमेल बनके खाया ४ बिछु ५ सर्प ६ नउल ७ मूसे ८ के रूपोसें डंक मारा और मांस नोची खाधा. हाथी ९ हथणी १० बनके सूंड दांतका घाव करा पग हेतु मर्दन करा तोभी भगवंत वज्रऋषभनाराच नामक संहनन वाले होने से नही मरे. पिशाच बनके अददहास्य करा ११ सिंहवनके नख दाडायोंसे बिदारया, फाडया १२ सिद्धार्थ त्रिशलाका रूप करके पत्रके स्नेहके बिलाप करे १३ स्कंधावारके लोक बनाके भगवंतके पगों उपर हांकी रांधी १४ चंडालके रूपसें पंखियों के पंजरे भगवंतके कान बाहु आदि मे लगाये तिन पक्षीयोंने शरीर नोंचा १५ पीछे खर पवनसें भगवंतकों गेंदकी तरे उछाल २ के धरती उपर पटका १६ पीछे कलिका पवन करके भगवंतकों चक्रकी तरे घुमाया १७ पीछे चक्र मारा जिससे भगवंत जानु MAG00GOAGUAGDAGOAGRAGRAGADAGOGOA | AAKAAAAAAAAGAL Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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