Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Kulchandravijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 66
________________ निमित्तके कदापि घट नही होता है, तैसेंही तीर्थंकर रूप निमित्त कारण विना आत्माकों मोक्ष नही होता है, इस वास्ते तीर्थंकरकी भक्ति अवश्य करने योग्य है । प्र. ११२. जगत में जीव पुन्य पाप करते है तिनके फलका देनेवाला परमेश्वर है वा नही ? उ. पुन्य पाप के फलका देनेवाला परमेश्वर नही है. प्र.११३ . पुन्य पाप के फलका दाता ईश्वर मानिये तो क्या हरज है ? उ. ईश्वर पुन्य पापका फल देवे तब तो ईश्वर की ईश्वरताकों कलंक लगता है. प्र.११४. क्या कलंक लगता है ? उ. अन्यायता, निर्दयता असमर्थता अज्ञानतादि. प्र.११५. अन्यायता दूषण ईश्वरकों पुन्य पापके फल देनेसें कैसें लगता है ? उ. जब एक आदमीनें तलवारादिसें किसी पुरुषका मस्तक छेदा, तब मस्तकके छिदनेसें उस पुरुषकों जो महा पीडा भोगनी पडी है, सो फल ईश्वरने दूसरे पुरुषके हाथमें उसका मस्तक कटवाके भुक्ताया, तद पीछे तिस मारने वालेकों फांसी आदिकसें मरवाके तिसकों तिस शिर छेदन रूप अपराधका फल भुक्ताया, ईश्वरनें पहिला तिसका शिर कटवाया, पीछे तिसकों फांसी देके तिस शिर छेदनेका फल भुक्ताया, ऐसे काम करने से ईश्वर अन्यायी सिद्ध होता है. प्र.११६. पुन्य पापके फल भुक्ताने से ईश्वर में निर्दयता क्यों कर सिद्ध होती है ? उ. जब ईश्वर कितने जीवांकों महा दुखी करता है, तब निर्दयी सिद्ध होता है. शास्त्रोंमें तो ऐसे कहता है किसी जीवकों मत मारना, दुःखीभी न करनां, भूखेकों देखके खानेकों देनां, और आप पूर्वोक्त काम नही करता है, जीवां को मारता है, महा दुःखी करता है. भूखसें लाखो करोडो मनुष्य कालादिमें मर जाते है, तिनकों खानेकों नही देता है, इस वास्ते निर्दयी सिद्ध Jain Education International २००७ ५० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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