Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Kulchandravijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 104
________________ भेद सर्वज्ञ वीतरागने प्रत्यक्ष केवल ज्ञानसें देखे है, इन कर्मांके सिवाय जगतकी विचित्र रचना कदापि नही सिद्ध होवेगी, इस वास्ते सुज्ञ लोकोंकों अरिहंत प्रणीत मत अंगीकार करना उचित है, और ईश्वर वीतराग सर्वज्ञ किसी प्रमाणसे भी जगतका कर्ता सिद्ध नही होता है, जिसका स्वरूप उपर लिख आये है. प्र. १५५. जैन मतके ग्रंथ श्री महावीरजीसें लेके श्री देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण तक कंठाग्र रहै क्योंकर माने जावे, और श्वेतांबर मत मूलका है और दिगंबर मत पीछेसें निकला, इस कथनमें क्या प्रमाण है. उ. जैन मतके आचार्य सर्व मतोंके आचार्योंसें अधिक बुद्धिमान थे, और दिगंबराचार्योंसे श्वेतांबर मतके आचार्य अधिक बुद्धिमान् आत्मज्ञानी थे, अर्थात् बहुत काल तक कंठाग्र ज्ञान रखने में शक्तिमान थे, क्यों कि दीगंबर मतके तीन पुस्तक धवल ७०००० श्लोक प्रमाण १ जयधवल ६०००० श्लोक प्रमाण २ महाधवल ४०००० श्लोक प्रमाण ३ श्री वीरात् ६८३ वर्षे ज्येष्ठशुदि ५ के दिन भूतवलि १ पुष्पदंत नामें दो साधुयोंनें लिखे थे, और श्वेतांबर मतके पुस्तक गिणती में और स्वरुपमें अलग-अलग कोटि १००००००० पांचसौ आचार्योने मिलके और हजारो सामान्य साधुयोने श्री विशत् ९८० वर्षे वल्लभी नगरीमें लिखे ले, और बौद्धमतके पुस्तकतो श्री वीरात् थोडेसें वर्षो पीछे ही लिखे गये थे, जिनोकी बुद्धि अल्प थी तिनोनें अपने मतके पुस्तक जलदीसें लिखलीने, और जिनोकी महा प्रौढ धारण करनेकी शक्तिवाली बुद्धिथी तिनोंने पीछे सें लिखे यह अनुमानसें सिद्ध है, और दिगंबर मतमें श्री महावीरके गणधरादि शिष्योंसें लेके ५८५ वर्ष तकके काल लग हुए हजारों आचार्योमेसें किसी आचार्यका रचा हुआ कोइ पुस्तक वा किसी पुस्तकका स्थल नहीं है, इस वास्ते दिगंबर मत पीछेसें उत्पन्न हुआ है. . प्र.१५६. देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणनें जो ज्ञान पुस्तकोंमे लिखा है, सो आचार्योकी अविच्छिन्न परंपरासें चला आया सो लिखा है, परं स्वकपोल कल्पित नही लिखा, इसमें क्या प्रमाण है, जिससें जैन मतका ज्ञान सत्य माना जावे. उ. जनरल कनिंगहाम साहिब तथा डाक्तर हाँरनल तथा डाक्तर बूलर प्रमुखोंनें मथुरा नगरीमें से पुरानी श्री महावीरस्वामीकी प्रतिमाकी पलांठी Jain Education International ०००००० ८८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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