Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Kulchandravijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 109
________________ " . सर ए. लिखी हुइ मालुम होती है, ५, कोटीय गण अंत नंबर २ में लिखा हुआ मालुम होता है, जहां १, १ की २ दूसरी तर्फकी यथार्थ नकल नीचे प्रमाणे वंचाती है, सिद्ध = स ५ हे १ दी १० + २ अस्य पुरवाये कोटो... कनिंगहामकी लीनी हुइ नकल से मैं पिछले शब्द सुधार सकता हूं, सो ऐसे अस्यापुरवाये कोट (हिय) मालुम होता है, परंतु टकारके उपरका स्वर स्पष्ट मालुम नही होता है, और यकारके वामे तर्फका स्थान थोडासाही मालुम होता है ||६ एक आगे के गणका तथा तिसके एक कुलके नामोंका अपभ्रंसरूप नंबर १० वाला चित्र चौदवे में १४ मालुम होता है, जहां यथार्थ नकल नीचे लिखे प्रमाणे वांचने में आती है | पंक्ति पहिली ।। स ४० + ३ ग्र२ठी २० एतासय पुरवायेवरणे गतीपेती वमीकाकु नवचकस्यरेहेनदीस्यसास स्यसेनस्यनीवतनंसावकद || पंक्ति दूसरी || पशानवधयगीह... ग. भ... प्रपा... ना... मात.. ॥ मैं निसंदेह कहताहूं के गती भूलसें वांचने में आया है, और सो खरेखरा गणे है, जेकर इसतरें होवे तो वरणेभी इस सरीषाही शब्द चारणे के बदले भूलसें वांचनेमें आया होना चाहिये, क्योंकि यह गण जो कल्पसूत्र एस.वी.इ. वाल्युम पत्रे २९१ प्रमाणे आर्य सुहस्तिका पांचमा शिष्य श्री गुप्तसें स्थापन हुआ था, तिसका दूसरा कुल प्रीतिधार्मिक है, (पत्रे. २९२) यह सहज सें मालुम होता है कि, यह नाम पेतिवमिक कुलके आचार्यका संयुक्त नाम पेतिवमिक कुल वाचकस्य में गुप्त रहा हुआ है, जोके पेतिवमिक संभवित शब्द है, और संस्कृत प्रइति वर्मिकके दर्शक दाखल प्रीतिवर्मनका साधिक शब्द तद्धित गिणतीमें करीएतोभी मैं ऐसे मानताहूं के यह यथार्थ नकलकी खामी उपर तथा ध और व की बीचमें निजीकके मिलते हुए उपर विचार करतां, सो बदलाके पेतिधमिक होना चाहिये, वांचणे में दूसरी भूल यह आचार्य के नाममें जहां ह॒ के ऊपर ए-मात है सो असली पिछले व अक्षरके पेटेकी है, इस नामका पहिला भाग अवस्य रेहे नही थी, परंतु रोह था के जो रोह गुप्त, रोहसेन और अन्य शब्दों में मालुम पडता है. दुसरी पंक्तिमें थोडासा ही सुधारनेका है, जो प्रपा यह अक्षर शुद्ध होवें और तिनका शब्द बनता होवे, तबतो अर्पणकरा हुआ पदार्थ एक पाणी पीनेका ठाम होना चाहिये, अब में नीचे लिखे मूजब थोडासा बीचमें प्रक्षेप करना सूचन करता हुं ॥ स ४७२ डि २० एतस्य पुरवाये चारणेगणे पेतीधमीक कुलवाचकस्य, रोहनदीस्य, सिसस्य, सेनस्य, निवतनं सावक. दर...प्रपा (दी) ना.. . इसका ९३ ७०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only ००००००००००००० www.jainelibrary.org

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