Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Kulchandravijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 121
________________ सुस्वादके सुखकी लंपटता सें तिस नास्तिक मतमे से निकलनाभी मुशकल है, इस वास्ते यह धर्म सर्वथा सुज्ञजनो को त्यागने योग्य है, इस मतमें धर्मके लक्षणतो नही है, परंतु तिसके माननेवाले लोकोने धर्म मान रखा है, इस वास्ते इसका नामभी धर्मही लिखा है || इति प्रथम धर्म भेद ||१|| एक धर्म शमी खेजडी वंबल | इस वन समान बौद्धांका धर्म है, क्योंकि कीकर खदिर वेरी करीरादि ब्रह्मचर्यादि कितनीक सत् क्रिया और ध्यान करके मिश्रित वन समान है यह योगाभ्यासादिक के करने से मरां पीछे व्यंतर वन विशिष्ट शुभ फल नही देता देवता की गतिमे उत्पन्न होने से कुछक है किंतु सांगरी वव्वूल फलादि शुभ सुख रूप फल भोगमें देता है, तथा सामान्य नीरस फल देते है, | चोक्तं बौद्ध शास्त्रे ।। मृदीशय्या प्रातरुय सांगरी पक्की शुष्क हुइ होइ पेया ।। भक्तं मध्ये पानकंचा परान्हे || द्राक्ष किंचित् प्रथम खाते हुए मीठी पाणं शर्कराचार्द्धरात्रौ || मोक्षश्चांत शाक्य लगती है परंतु कंटका कीर्ण हो पुत्रेण द्रष्टः ||१|| मणुन्न भोयणं, भुच्चा नेसें विदारणादि अनर्थका हेतु मणुन्नं , सयणासणं मणुन्नं , सिअ गारंसि होवे है ।२। मणुन्नं, झायए मुणी ||२|| इत्यादि ।। बौद्ध मतके शास्त्रानुसारे अपने शरीरकों पुष्ट करनां, मनके अनुकूल आहार, शय्यादिकके भोग से और बौद्धभिक्षिके पात्र में कोइ मांस दे देवे तो तिसकोभी खा लेना, स्नानादिकके करने से पांचो इंद्रियोंके पोषन रूप और तप न करने से आदि में तो मीठा (अच्छा) लगता है, परंतु भवांतर में दुर्गति आदिक अनर्थ फल उत्पन्न करता है, इस वास्ते यह धर्मभी त्यागने योग्य है ।। इति दूसरा धर्म भेद ।।२।। GOAG00000000000000000GBAGUAGEAGUAGAN १०५ GUAGUAGUAG0000AGAGAGAGAGA00000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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