Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Kulchandravijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 123
________________ फलवाले है, ये सर्व मालकी रहित जानने ७ ऐसे तारत म्यतासें अधम, मध्यम, उत्तम वृक्षोंकी विचित्रता से पर्वतके वनों की भी विचित्रता जाननी 11311 Jain Education International मिथ्या द्रष्टी सुसढादि देव गतिमें गए बहुल संसारी हुए, वेभी मिथ्या तप करने में तत्पर हुए होए, इसी भंगमे जानने ||३|| कितनेके किंपाकादिकी तरें असत् आग्रह देव गुरुके प्रत्यनीकादि भाव वाले तथाविध तपोनुष्टा नादि करके एकवार स्वर्गादि फल देके बहुत संसार तिर्यंच नरकादिके दुःख देनेवाले होते है, गौशालक, जमालि आदिवत् ||४|| तथा कितनेक भद्रभाव विशेष पात्र गुणादि परिज्ञान रहित दान पूजादि मिथ्यात्वके रागसें करते है, वे उडुंबरादिवत् किंचित् राज्यमनुष्य के भोग सामग्र्यादि असार शुभ फलही देते है, दूसरे के उपरोधसें दान देनेवाले सुंदर वाणीकी तरें जैनधर्माश्रित भी निदान सहीत अविधिसें तप अनुष्ठान दानादि करनेवालेभी इसी अंगमें जान लेने, चंद्र, सूर्य वहु पुत्रिकादिके द्रष्टांत जान लेने ||५|| कितनेक तापसादिधर्मी बहुत पाप रहित तपोनुष्ठान कंदमूल फलादि सच्चित्त भोजन करनेवाले अल्प तपवाले नारंग, जंबीर, करणादि तरुवत् ज्योतिषि भवनपत्यादि तरुवत् ज्योतिषि भवनपत्यादि बि मध्यम देवर्द्धि फलदायी है. श्री वीर पिछले भवोंमें परिव्राजक पूर्ण तापसवत् तथा जैन मति सरोस गोरव प्रमाद संयमी आदि मंडुकी वध करने वाले क्षपक मुनि मंगु आचार्यादि वत् ||६|| कितनेक तामलि ऋषिकी तरें उग्र तप करनेवाले चरक परिव्राजकादि धर्मवाले आंबादि वृक्षोंवत् ब्रह्मदेवलोकावधि सुख फल देते है ||७|| ये सर्व प्रर्वतके वन समान कथन करे, परंतु neven १०७ For Private & Personal Use Only ०७९ www.jainelibrary.org

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