Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Kulchandravijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 116
________________ पूर्वोक्त सूचीकी अपेक्षासें कहता हे, परंतु प्रमाणांगुलका स्वरूप नहीं है, प्रमाणांगुल जैसी उपर चारसौ गुणी लिख आए है तैसी है, इस चारसौ गुणी प्रमाणांगुलसें ऋषभदेव भरतकी अवगाहनादिका मापा है, परंतु विनीता, द्वारकां पृथ्वी, पर्वत, विमान , द्वीप, सागरोंका मापा हजार गुणी वा चारसौ गुणी अंगुलसें नहीं है, इन नगरी द्वीपादिकका मापा तो प्रमाणांगुल अढाइ उत्सेधांगुल प्रमाण चौडी है, तिससें मापा करा है, यह जैनमतके सिद्धांतकारोका मत है, परंतु चारसौ तथा एक हजार गुणी उत्सेधांगुलसें विनीता, द्वारकां , द्वीप, सागर, विमान, पर्वतोका मापा करतां यह जैन सिद्धांतका मत नही है, यह कथन जिनदास गणि क्षमाश्रमणजी श्री अनुयोगद्वारकी चूर्णिमें लिखते है, तथा च चूर्णिका पाठः जेअपमाणंगुलाउपुढवायपमाणाणिति तेअपमाणंगुलविस्कंभणआणेयव्वानपुणसूइ अंगुलेणंतिएयं चविवत्तगुणएणकेइएअस्सजं पुणमिणंतिअन्नेउसूइअंगुलमाणेणनसुत्तभणियंतं ।। इस पाठकी भाषा || जिस प्रमाणांगुलसें पृथ्वीस पर्वत, द्वीपादिका प्रमाण करीये है सो प्रमाणांगुलका जो विस्कंभ (चौडापणा) अढाइ उत्सेधआंगुल प्रमाण से करना, परंतु सूची आंगुलसें पृथ्वी आदिकका प्रमाण न करना, और कितनेक ऐसे कहते है कि एक. प्रमाणांगुलमें एक हजार उत्सेधांगुल मावे, ऐसे प्रमाणांगुलसें मापनां, और अन्य आचार्य ऐसे कहता है कि उत्सेधांगुलसें चारसौ गुणी ऐसे प्रमाणांगुलसे पृथ्वी आदिक का मापा करना, अब चूर्णिकार कहता है कि ये दोनों मत हजार गुणी अंगुल और चारसौ गुणी अंगुलके मापेसें पृथ्वी आदिक के मापनेके मत, सूत्र भणित नही (सिद्धांत सम्मत नही) है, और अंगुल सत्तरी प्रकरणके कर्ता श्री मुनिचंद्रसूरिजी (जो के विक्रम संवत् ११६१ मे विद्यमान थे) इन पूर्वोक्त दोनो मतोंकों दूषण देते है तथा च तत्पाठः ।। किंचमये सुदोसुगमगहंवकलिंगमाइआसव्वेपायेणरियदेसाएगंमियजोयणहुंति ||१६|| गाथा || इसकी व्याख्या ।। जेकर ऐसे मानीयेके एक प्रमाण अंगुल में एक सहस्त्र उत्सेधांगुल अथवा चारसौ उत्सेधांगुल मावे , ऐसे योजनोंसे पृथ्वी आदिक मापीए, तबतो प्रायें मगधदेश, अंगदेश, कलिंगदेशादि सर्व आर्य देश एकही योजनमें मा जावेंगे, इस बास्ते दशगुणें उत्सेधांगुलके विस्कंभपणेसें मापना सत्य है, इस चर्चासें अधिक पांचसौ धनुषकी अवगाहनावाले लोक इस छोटेसे प्रमाणवाली नगरी में क्योंकर मावेंगे, और द्वारकांके करोडो घर कैसें मावेंगे, और चक्रवर्तीके बनावे - 1500GBAGGAGRAMODGEAGOOGORA6A6AOST ICAGODGAGEDGEAGSAGROADCASSAGAR Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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