Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Kulchandravijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 96
________________ तो आप क्यों मर गये. १ सदा क्यों न जीते रहे १ ईशा महम्मदादि जेकर आज तक जीते रहते तो हम जानते ये सच्चे परमेश्वरकी तर्फसें उपदेश करने आये है. हम अब उनके मतमें हो जाते. मतधारीयोकों मेहनत न करनी पडती, जब साधारण मनुष्योके समान मर गये तब क्योंकर शक्तिमान हो सकते है १ ते सर्व जूठी वातों की अणधक गप्पे जंगली गुरुयोने जंगलीपणोसें मारी है, इस वात्से सर्व मिथ्या है. इति आयु कर्म पंचमा. अथ छठ्ठा नाम कर्म, तिसका स्वरूप लिखते है. तिसके ९३ तिरानवे भेद है. नरकगति नामकर्म १ तिर्यंच गति नाम २ मनुष्य गति नाम ३ देवगति नाम ४ एकेंद्रिय जाति १ द्वींद्रिय जाती २ तीनेंद्रिय जाति ३ चार इंद्रिय जाति ४ पंचेंद्रिय जाति ५ एवं ९ उदारिक शरीर १० वेक्रिय शरीर ११ आहारिक शरीर १२ तैजस शरीर १३ कार्मण शरीर १४ उदारिकांगोपांग १४ वैक्रियांगोपांग १६ आहारिकांगोपांग १७ उदारिकबंधन १८ वैक्रिय बंधन १५ आहारिक बंधन २० तैजस बंधन २१ कार्मण बंधन २२ उदारिक संघातन २३ वैक्रिय संघात २४ आहारिक संघातन २५ तैजस संघातन २६ कार्मण संघातन २७ वज्र ऋषभ नराच संहनन २८ ऋषभ नराच संहनन २९ नराच संहनन ३० अर्द्ध नराच संहनन ३१ कीलिका संहनन ३२ सेवर्त्त संहनन ३३ सम चतुरस्त्र संस्थान ३४ निग्रोध परिमंडल संस्थान ३५ सादि संस्थान ३६ कुब्ज संस्थान ३७ वामन संस्थान ३८ . हुंडक संस्थान ३९ कृष्ण वर्ण ४० नील वर्ण ४१ रक्त वर्ण ४२ पीत वर्ण ४३ शुक्ल वर्ण ४४ सुगंध ४५ दुर्गंध ४६ तिक्त रस ४७ कटुक रस ४८ कषाय रस ४९ आम्ल रस ५० मधुर रस ५१ कर्कश स्पर्श ५२ मृदु स्पर्श ५३ हलका ५४ भारी ५५ शीत स्पर्श ५६ . उष्ण स्पर्श ५७ स्निग्ध स्पर्श ५८ रुक्ष स्पर्श ५९ नरकानुपूर्वी ६० तिर्यंचानुपूर्वी ६१ मनुष्यानुपूर्वी ६२ देवानुपूर्वी ६३ शुभविहायगति ६४ अशुभविहायगति ६५ परघात नाम ६६ उच्छवास ६७ आतप ६८ उद्योत नाम ६९ अगुरुलघु ७० तीर्थंकर नाम ७१ निर्माण ७२ उपघात नाम ७३ त्रसनाम ७४ बादर नाम ७५ पर्याप्त नाम ७६ प्रत्येकनाम ७७ स्थिर नाम ७८ शुभ नाम ७९ सुभग नाम८० सुस्वर नाम ८१ आदेय नाम ८२ यशकीर्ति नाम ८३ स्थावर नाम ८४ सूक्ष्म नाम ८५ अपर्याप्त नाम ८६ साधारण नाम ८७ अस्थिरनाम ८८ अशुभ नाम ८९ दुर्भग नाम ९० दुस्वर नाम ९१ अनादेय नाम ९२ अयश नाम ९३ ये तिरानवे भेद नाम कर्मके है. अब इनका स्वरूप लिखते है. ८० Jain Education International ०००००० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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