Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Kulchandravijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 87
________________ होते है, ४ माता पिता और कर्म से आकर्षण न होवे तो कदापि गर्भ उत्पन्न न होवे, ५ इसीतरे जो वस्तु जगत में उत्पन्न होती है सो इनही पांचो निमित्त कारणों से और उपादान कारणो से होती है, और पृथ्वी प्रवाह से सदा रहेगी और पर्याय रूप करके तो सदा नाश और उत्पन्न होती रही है, क्योंकि सदा असंख जीव पृथ्वी पणे ही उत्पन्न होते है, और मरते है तिन जीवां के शरीरों का पिंडी पृथ्वी है. जो कोइ प्रमाणवेत्ता ऐसे समझता है के कार्य रूप होने सें पृथ्वी एक दिनतो अवश्य सर्वथा नाश होवेगी, घटवत्. उत्तर - जैसा कार्य घट है तैसा कार्य पृथ्वी नही है, क्योंकि घटमें घटपणे उत्पन्न होनेवाले नवीन परमाणु नही आते है, और पृथ्वी में तो सदा पृथ्वी शरीरवाले जीव असंख उत्पन्न होते है, और पूर्वले नाश होते है. तिन असंख जीवां के शरीर मिलने और बिछडनेसे पृथ्वी तैसाही रहेगी. जैसे नदीका पाणी अगला २ चला जाता है, और नवीन नवीन आने से नदी वैसीही रहती है, इस वास्ते घटरूप कार्य समान पृथ्वी नही है, इस वास्ते पृथ्वी सदाही रहेगी और तिसके उपर जो रचना है, सो पूर्वोक्त पांच कारणोसें सदा होती रहेगी. इस वास्ते पृथ्वी अनादि अनंत काल तक रहेगी, इस वास्ते पृथ्वीका कर्ता ईश्वर नही है, और जो कितनेक भोलें जीव मनुष्य १ पशु २ पृथ्वी ३, पवन ४, वनस्पतिकों तथा चंद्र, सूर्यकों देखके और मनुष्य पशुयोके शरीरकी हड्डीयांकी रचना आंखके पडदे खोपरीके टुकडे नसा जालादि शरीरोंकी विचित्र रचना देखके हरान होते है, जब कुछ आगा पीछा नहीं सुझता है, तब हार कर यह कह देते है, यह रचना ईश्वरके विना कौन कर सकता है, इस वास्ते ईश्वर कर्ता २ पुकारते है, परंतु जगत् कर्ता मानने से ईश्वरका सत्यानाश कर देते है, सो नही देखते है. काणी हथनी एक पासेकी ही वेलडीयां खाती है, परंतु हे भोले जीव जेकर तेने अष्ट कर्मके १४८ एकसौ अडतालीस भेद जाने होते, तो अपने विचारे ईश्वरकों काहेकी जगत कर्ता रूप कलंक देके तिसके ईश्वरत्वकी हानी करता, क्योंकि जो जो कल्पना भोले लोकोनें ईश्वर में करी है, सो सो सर्व कर्म द्वारा सिद्ध होती है, तिन कर्मांका स्वरूप संक्षेप मात्र यहां लिखते है, जेकर विशेष करके कर्म स्वरूप जानने की इच्छा होवे तदा षटकर्म ग्रंथ १ कर्म प्रकृति प्राभृत २ पंचसंग्रह ३ शतक ४ प्रमुख ग्रंथ देख लेने, प्रथम जैनमतमें कर्म किसेकों कहते तिसका स्वरूप लिखते है. Jain Education International ७१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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