Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Kulchandravijay
Publisher: Divya Darshan Trust
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नही देखे है, तो यूरोपीयन विद्वान कहां से देखे, क्योंकि पाटन और जैसलमेर में ऐसे गुप्त भंकार पुस्तकों के है कि वे किसी इंग्रेजनेभी नही देखे है, तो फेर पूर्वोक्त अनुमान कैसे सत्य होवे.
प्र. १४६ . जैनमतके पुस्तक जो जैनी रखते है सो किसीकों दिखाते नही है, इसका क्या कारण है ?
उ. कारण तो हमकों यह मालुम होता है कि मुसलमानोंकी अमलदारी में मुसलमानोने बहुत जैनमतोपरि जुल्म गुजारा था, तिसमें सैंकडो जैनमतके पुस्तकों के भंडार बाल दीये थे, और हजारो जैनमतके मंदिर तोडके मसजिदे बनवा दीनी थी. कुतब दिल्ली अजमेर जुनागढ के किलेमें प्रभास पाटणमें रांदेर, भरूचमें इत्यादि बहुत स्थानो में जैन मंदिर तोडके मसजिदो बनवाइ हुइ खडी है, तिस दिनके भरे हुए जैनि किसीकोंभी अपने पुस्तक नही दिखाते है, और गुप्त भंडारोंमें बंध करके रख छोडे है.
प्र.१४७. इस कालमें जो जैनी अपने पुस्तक किसीकों नही दिखाते है, यह काम अब है वा नही ?
उ. जो जैनी लोक अपने पुस्तक बहुत यत्नसें रखते है यह तो बहुत अच्छा काम करते है, परंतु जैसलमेर में जो भंडारके आगे पथ्थरकी भीत जिनके भंडार बंध कर छोडा है, और कोई उसकी खबर नही लेता है, क्या व पुस्तक मट्टी हो गये है के शेष कुछ रह गये है, इस हेतुसें तो हम इस काल के जैन मतीयोंको बहुत नालायक समझते है.
प्र. १४८. क्या जैनी लोकों के पास धन नही है, जिससे वे लोक अपने मतके अति उत्तम पुस्तकों का उद्धार नही करवाते है ?
उ. धनतो बहुत है, परंतु जैनी लोकों की दो इंद्रिय बहुत जबरदस्त हो गइ है, इस वास्ते ज्ञान भंडार की कोईभी चिंता नही करता हैं.
प्र. १४९. वे दोनो इंद्रियो कौनसी है जो ज्ञानका उद्धार नही होने देती है ?
उ. एकतो नाक और दूसरी जिव्हा, क्योंकि नाक के वास्ते अर्थात् अपनी नामदारीके वास्ते लाखों रुपइये लगा के जिन मंदिर बनवाने चले जाते है, और जिव्हाके वास्ते खाने मे लाखों रुपये खरच करते है,
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