Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Kulchandravijay
Publisher: Divya Darshan Trust
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होता है.
प्र.११७. ईश्वरतो जिस जीवने जैसा जैसा पुन्य पाप करा है तिसकों तैसा तैसा फल देता है. इसमे ईश्वरकों कुछ दोष नही लगता है, जैसें राजा चौरकों दंड देता है और अच्छे काम करने वालेकों इनाम देता है |
उ. राजातो सर्व चोरकों चोरी करने से बंद नही कर सकता है. चाहता तो है कि मेरे राज्य में चोरी न होवे तो ठीक है, परंतु ईश्वरकों तो लोक सर्व सामर्थ्यवाला कहते है, तो फेर ईश्वर सर्व जीवांको नवीन पाप करने से क्यों नही मन करता है. मनै न करने में ईश्वर जान बूझके जीवो सें पाप करता है. फेर तिसका दंड देके जीवोंकों दुःखी करता है. इस हेतुसेंही अन्यायी, निर्दयी, असमर्थ ईश्वर सिद्ध होता है. इस वास्ते ईश्वर भगवंत किसी को पुन्य पापका फल नही देता है. इस चर्चाका अधिक स्वरूप देखनां होवे तो हमारा रचा हुआ जैनतत्वादर्शनामा पुस्तक बांचनां .
प्र.११८. जब ईश्वर पुन्य पापका फल नही देता है, तो फेर पुन्य पापका फल क्यों कर जीवांको मिलता है ?
. उ. जब जीव पुन्य पाप करते है तब तिनके फल भोगनेके निमित्तभी साथही होने वाले बनाता करता है, तिन निमित्तो द्वारा जीव शुभाशुभ कर्मोका फल भगोते है, तिन निमित्तोका नामही यज्ञ लोकोने ईश्वर रख छोडा है.
प्र.११९. जगतका कर्ता ईश्वर है के नही ? . उ. जगततो प्रवाहसें अनादि चला आता है. किसीका मूलमें रचा हुआ नही है. काल १ स्वभाव २ नियति ३ कर्म ४ चेतन आत्मा और जड पदार्थ इनके सर्व अनादि नियमोसें यह जगत विचित्ररूप प्रवाहसें चला हुआ उत्पाद व्यय धूव रूपसें इसी तरे चला जायेगा ।
___प्र.१२०. श्री महावीरस्वामीए तीर्थंकरो की प्रतिमा पूजनेका उपदेश करा है के नहीं ?
उ. श्री महावीरजीने जिन प्रतिमाकी पूजा द्रव्ये और भावेतो गृहस्थकों करनी बतायिहै, और साधूयोंकी भावपूजा करनी बताइ है ।
प्र.१२१. जिन प्रतिमाकी पूजा विना जिनकी भक्ति हो शक्ति है के नही ?
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