Book Title: Jain Dharm Vishayak Prashnottara
Author(s): Atmaramji Maharaj, Kulchandravijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 56
________________ तथा ४ मे पट्ट उपर श्री देवगुप्तसूरिजी विकमात् १०७२ वर्षे नवपद प्रकरणके कर्ता हुए है, सोभी ग्रंथ विद्यमान है, तथा श्री महावीरजीकी परंपराय वाले आचार्योने अपने बनाए कितनेक ग्रंथो में प्रगट लिखा है कि, जो उपकेश गच्छ है सो पद परंपरायसें श्री पार्श्वनाथ २३ तेवीसमें तीर्थंकरसें अविच्छिन्न चला आता है, जब जिन आचार्योका प्रतिमा मंदिरकी प्रतिष्ठा करी हुई और ग्रंथ रचे हुए विद्यमान है तो फेर तिनके होने में जो पुरुष संशय करता है तिसकों अपने पिता, पितामह, प्रपितामह आदिकी वंशपरंपरामेभी संशय करना चाहिये, जैसे क्या जाने मेरी सातमी पेढीका पुरुष आगे हुआ है के नही. इस तरेंका जो संशय कोइ विवेक विकल करे तिसकों सर्व बुद्धिमान् उन्मत्त कहेंगे. इसी तरें श्रीपार्श्वनाथकी पद परंपरायके विद्यमान जो पुरुष श्री पार्श्वनाथ २३ तेवीसमें तीर्थंकरके होनेमे नही करे अथवा संशय करे तिसकोंनी प्रेक्षावंत पुरुष उन्मत्तोहीकी पंक्तिमे समझते है, तथा धूर्त्त पुरुष जो काम करता है सो अपने किसी संसारिक सुखके वास्ते करता है. परंतु सर्व संसारिक इंद्रिय जन्य सुखसे रहित केवल महा कष्ट रूप परंपराय नही चला सक्ता है, इस रास्ते जैनधर्मका संप्रदाय धूर्त्तका चलया हुआ नही, किंतु अष्टादश दूषण रहित अर्हंतका चलाया हुआ है. प्र.८१. कितनेक यूरोपीअन पंकित प्रोफेसर ए. वेबर साहिबादि मनमे ऐसी कल्पना करते है कि, जैन मतकी रीती बुध धर्मके पुस्तकों के अनुसारे खडी करी है. प्रोफेसर वेबर ऐसेभी मानते है कि, बौध धर्मके कितने साधु बुधकों ना कबूल करके बुधके एक प्रतिपक्षीके अर्थात् महावीरके शिष्यबनें और एक वार्त्ता नवीन जोड के जैनमत नामे मत खडा करा, इस कथनकों आप सत्य मानते होके नहीं ? उ. इस कथनकों हम सत्य नहीं मानते है, क्योंकि प्रोफेसर जेकोबीने आचारंग और कल्पसूत्रके अपने करे हुए इंग्लीश भाषांतरकी उपयोगी प्रस्तावना में प्रोफेसर ए. वेबर और मी० ए. वार्थकी पूर्वोक्त कल्पनाकों जूठी दिखाइहै, ओर प्रोफेसर जेकोबीने यह सिद्धांत अंतमे बताया है कि जैन मतके प्रतिपक्षीयोंने जैन मतके सिद्धांत शास्त्रों उपर भरोसा रखनां चाहिये, कि इनमें जो कथन है सो मानने लायक है. विशेष देखनां होवे तो डाफ्त बूलरसाहिब कृत जैन दंतकथा की सत्यता वास्ते एक पुस्तकका अंतर हिस्सा भाग है, सो देख १७००७ Jain Education International ४० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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