Book Title: Jain Dharm Vikas Book 02 Ank 04 05 06
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 15
________________ या॥२. - -- - - हृदयोद्गार रचयिता-भक्तजन. ( हरिगीतिका) हे एकलिङ्गपुरी! तुम्हें हम, क्या सुनायें ? आज हा! तुमने छिपाया गोदमें, श्रीसङ्घ का सिरताज हा !! जिनके सहारे से सभी हम, सत्य-पथ पर थे खड़े । सहसा महा आघात से अब, शोक-सागर में पड़े ॥१॥ कोई न समझा काल ! तेरी इस भयङ्कर चाल को। हा! हन्त !! छीना यों हमारे धर्म के उस लाल को॥ वे कौन थे ? तुझको तनिक भी ध्यान तक आया नहीं। उनके गुणों का क्या विपुल विस्तार तक भाया नहीं ? ||२|| विजयी श्रमण श्री 'नीति-सूरीश्वर' महा आचार्य थे। योगी, तपस्वी, नीति-शाली आर्य के भी आर्य थे। धीरज-क्षमा-भण्डार या साकार ही औदार्य थे। होती जिधर भी दृष्टि उनकी, सिद्ध-से सब कार्य थे॥३॥ वे सत्य, साहस, प्रेम या वात्सल्य के आगार थे। प्रभु वीर-शासन के प्रभावक, सङ्घ के शृङ्गार थे॥ उत्साह-वर्द्धक धर्म-कार्यों के विमल आधार थे। वे तीर्थ-जीर्णोद्धार के तो एक ही अवतार थे ॥४॥ विद्यालयों की स्थापना का भी निरन्तर ध्यान था। श्रीजैन-संस्कृति के लिये सर्वस्व का बलिदान था। अन्याय के संहार का दिल में भरा अरमान था। जिनका अखण्डित ही रहा चारित्र्य-दर्शन-ज्ञान था ॥५॥ मन में जगत्कल्याण की ही कामना निष्काम थी। फिर से क्रिया-उद्धार की भी भावना उद्दाम थी। अर्हन्त-गच्छों पर रहा जिनका महान प्रभाव था। सबै शिष्य-वृन्दों पर सदा, सन्तान-सम बर्ताव था ॥६॥ उपदेश जिनके स्पष्ट थे, निष्पक्षता से मुक्ति थे।

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