Book Title: Jain Dharm Vikas Book 02 Ank 04 05 06
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 25
________________ મહાજને ચેન ગતઃ સ પત્થા ૧૨૭ १२७ मित्रों! ___ धर्म के लिए खास कोई समय नही है वह हर समय आराध्य है क्योंकिःसंपूर्ण जगत काल के मुख मे हैं । हिन्दी का एक कवि लिखता है किः 'झुठे सुखको सुख कहै, मानत है मन मोद । जगत चवेना कालका, कुछ मुख में कुछ गोद ॥ __ संसार में अनेक तरकी बाज, महा प्रतापी मनुष्य हुए पर कालने किसी को भी नहीं छोड़ा हिन्दी के एक कवि लिखते हैं । दाताऊ महीप मान्धाताऊ दिलीप जैसे, जिन के गुण अज हूं लौ द्विप द्विप छाये हैं । वाल ऐसो बलवान को भयो है जहानवीच, रावण समान को प्रतापी जगजाये है, वान की कलान में सुजान द्रोण पारथ से, जाके गुण दीन दयाल भारत में गाये हैं । कैसे कैसे सूर रचे चातुरी विरंचिजने, फेर चकचूर कर धूल में मिलाये हैं । इस विषय में लिखने वालोंने बडे बडे पोथे लिख डारे हैं उन सबों का मुख्य सारांश यही है कि धर्म के अतिरिक्त कोई भी जीवका सहायक नही है। अब इस धर्म के विषय में भी भिन्न भिन्न मतों के होने से एकतरह का मोह हो जाता है। आयु थोडी है। मत मतान्तर बहुत अधिक हैं। यदि उनका विचार किया जायतो शायद एक जन्म मे समाप्त होना तो कठिन है अतः विद्वानों का कहना है किः-"धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां, महाजनो येन गतः स पन्थाः” “सतामाचरितो धर्मः" इत्यादि तात्पर्य यह है कि महात्माओं का आचरित मार्ग ही धर्म है । इसी अभिप्राय से गोस्वामीजी भी लिखते हैं। __ "साधु समाज सकल गुन खानी, करऊं प्रनाम सप्रेम सुवानी। साधुओं का समाज सम्पूर्ण गुणो की खान है इस लिए उन को प्रेम सहित सुन्दरवाणी से नमस्कार करता हूं। जो महात्मा लोग दुःख सहकर भी पराये दोषों को ढाँपते हैं। जिस से वे जगत में वन्दनीय होते हैं तथा यश को प्राप्त करते हैं। संसार में अनेकों जल, पृथ्वी, तथा आकाश के विचरने वाले जड़ वा चेतन जीव हैं, उनमें से जब कभी जिस यत्न से जहां कहीं भी जिसने बुद्धि, कीत्ति, सद्गति, ऐश्वर्य, तथा घडप्पन पाये हैं वे सभी महात्माओं के सेवाका ही फलहै । महात्माओं का संगर्ग मंगल की जड़ है, उसकी प्राप्ति ही फल है, तथा सभी साधन फूल के समान हैं। जैसे पारस को स्पर्श करते ही लोह के जैसी

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