Book Title: Jain Dharm Darshan Part 01
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 14
________________ मोह करना व द्वेष अर्थात् नापसंद वस्तु से घृणा करना। ये दोनों शत्रु साथ-साथ रहते हैं। __ वीतराग - वीत यानी चले जाना। राग यानि ममत्त्व भाव अर्थात् जिनके रागादि पाप भाव चले गए हैं, वे वीतराग कहलाते हैं। प्रभु ने राग को जड़मूल से उखाड़ दिया, राग गया जिससे द्वेष भी चला गया। ये दोनों गए, अतः सभी दोष गए, संसार गया और भगवान वीतराग हो गए। परमात्मा :- परमात्मा अर्थात् शुद्ध आत्मा, राग द्वेष नाश होने के बाद आत्मा शुद्ध बन जाती है। अतः वे परमात्मा भी कहलाते है। जैन दर्शन मूलतः आत्मवादी दर्शन है, इसका सारा चिंतन आत्मा को केन्द्र में रखकर ही होता है। इसमें आत्म गुणों की पूजा की जाती है, किसी व्यक्ति की नहीं। जैन धर्म की प्राचीनता संसार के विविध विषयों में इतिहास का भी एक महत्वपूर्ण स्थान है। विचारकों द्वारा इतिहास को धर्म, देश, जाति, संस्कृति अथवा सभ्यता का प्राण माना गया है। जिस धर्म, देश, संस्कृति अथवा सभ्यता का इतिहास जितना अधिक समुन्नत और समृद्ध होता हैं, उतना ही वह धर्म, देश और समाज उत्तरोत्तर प्रगति पथ पर अग्रसर होता है। वास्तव में इतिहास मानव की वह जीवनी शक्ति है जिससे निरंतर अनुप्राणित हो मानव उन्नति की ओर बढ़ते हुए अन्त में अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता है। क प्राचीनतम धर्म है। यह अनादि अनंत काल से चला आ रहा है। प्रत्येक उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल में तीर्थंकरों के द्वारा धर्म की स्थापना होती है और इस वर्तमान अवसर्पिणी काल में भगवान ऋषभदेव ने इस धर्म की स्थापना की। जिनका समय अब से करोड़ों वर्ष पूर्व हुआ था। उनके पश्चात् तेईस तीर्थंकर और हुए, जिन्होंने अपने-अपने समय में जैन धर्म का प्रचार किया। इन्हीं तीर्थंकरों में भगवान महावीर अन्तिम अर्थात् चौबीसवें तीर्थंकर थे। उन्होंने कोई नया धर्म नहीं चलाया अपितु उसी जैन धर्म का पुनरोद्धार किया, जो तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के समय से चला आ रहा था। ऋषभदेव से पर्व मानव समाज पर्णतः प्रकति पर आश्रित था। कालक्रम में जब मनष्यों की जनसंख्या मे वृद्धि एवं प्राकृतिक संसाधनों में कमी होने लगी तो मनुष्य में संचय वृत्ति का विकास हुआ तथा स्त्रियां, पशुओं और खाद्य पदार्थों को लेकर एक दूसरे से छीना-झपटी होने लगी। ऐसी स्थिति में भगवान ऋषभदेव ने सर्वप्रथम समाज व्यवस्था एवं शासन व्यवस्था की नींव डाली तथा असि, मसि, कृषि एवं शिल्प के द्वारा अपने ही श्रम से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करना सिखाया। उन्होंने यह अनुभव किया कि भोग सामग्री की प्रचुरता भी मनुष्य की आकांक्षा व तृष्णा को समाप्त करने में असमर्थ हैं। इसीलिए उन्होंने स्वयं परिवार एवं राज्य का त्याग करके वैराग्य का मार्ग अपनाया और लोगों को त्याग एवं वैराग्य की शिक्षा देना पुनः प्रारम्भ किया। जैन धर्म की प्रामाणिकता कुछ विद्वान जैन धर्म को वैदिक धर्म की शाखा, तो कुछ इसे बौद्ध धर्म की शाखा मानते हैं। पर वर्तमान मे हुए शोध अनुसंधानों से ज्ञात होता है कि यह न वैदिक धर्म की शाखा है और न बौद्ध धर्म की शाखा है। यह एक स्वतंत्र धर्म है। यह वैदिक धर्म की शाखा नहीं है, क्योंकि वैदिक मत में वेद सबसे प्राचीन माने जाते हैं। विद्वान वेदों को 5000 वर्ष प्राचीन मानते हैं। वेदों में ऋषभ, अरिष्टनेमि आदि श्रमणों का उल्लेख मिलता है। वेदों के पश्चात उपनिषद, आरण्यक, पुराण आदि में भी इनका वर्णन आया है। यदि इन ग्रंथों की रचना से पूर्व जैन धर्म न होता, भगवान ऋषभ न होते, तो उनका उल्लेख इन ग्रंथों में कैसे होता? इससे ज्ञात होता है कि जैन धर्म इनसे अधिक प्राचीन है। Wor deateritiematoth. ForPurwomantivateruseting**** A. ....... mom.sanelibrary.org

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