Book Title: Jain Dharm Darshan Part 01
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 29
________________ 69 . ......90494 *90204033900000000000 AAAAAAAAAAAOOK अठारहवां भव - विश्वभूति मुनि एक करोड़ वर्ष तक चारित्र पालकर अन्त समय अनसन कर देवलोक में देवपने उत्पन्न हुए। उन्नीसवां भव - त्रिपृष्ठ वासुदेव : विश्वभूति का जीव आयुष्य पूर्णकर महाशुक्र देवलोक में गया और वहां से पोतनपुर के राजा प्रजापति की रानी मृगावती के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। गर्भ काल में रानी ने सात शुभ स्वप्न देखे, संपूर्ण मास होने पर पुत्र का जन्म हुआ। नाम रखा गया त्रिपृष्ठ। विश्वभूति मुनि के जन्म में की हुई तपस्या और सेवा, वैयावृत्य आदि के फलस्वरूप त्रिपृष्ठ अद्भुत पराक्रमी, साहसी और तेजस्वी राजकुमार बना। इस अवसर पर शंखपुर नगर के पास तुडीया पर्वत की गुफा में विशाखनंदी का जीव सिंहपने उत्पन्न हुआ, उस पर्वत के पास ही अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव का शालीक्षेत्र (चावलो का खेत)था, उस खेत की रक्षा के लिए जो भी आदमी रखा जाता था उसको सिंह बहुत हैरान करता था। इस तरह वर्षों-वर्ष प्रतिवासुदेव राजा अपने सेवकों को खेत की रक्षा के लिए भेजता था, एक दिन खुद प्रजापति राजा का नम्बर आ गया तब पिताजी की आज्ञा हासिल कर त्रिपृष्ठ अचल बंधु को साथ लेकर शालीक्षेत्र के पास पहुंचा, सिंह गुफा में बैठा हुआ था, त्रिपृष्ठ कवच पहन कर शस्त्र धारण किये हुए रथ में बैठकर गुफा के समीप पहुंचा, रथ के चीत्कार शब्द सुनकर सिंह उठा, उसे देख कर त्रिपृष्ठ ने विचार किया - यह शस्त्र और कवच को धारण किया हुआ नहीं है, और रथ पर सवार भी नहीं है इसलिए मुझे भी सब छोडकर इसके साथ युद्ध करना चाहिए। सर्ववस्तुओं का त्याग कर सिंह को आवाज देकर छलांग मारी और उसके दोनों होठ जीर्ण वस्त्र के माफिक चीर दिये, सिंह जमीन पर धड़ाम से गिर गया, मगर उसके प्राण नहीं निकलते, तब सार्थी ने कहा - अहो सिंह! जैसे तुम मृगराजा या वनराजा हो वैसे ही यह तुमको मारने वाला नरराजा है, जैसे-तैसे सामान्य आदमी ने तुम्हें नहीं मारा है, यह सुनते ही सिंह के प्राण निकल गये, मर कर नरक में गया। ___ एक समय अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव को त्रिपृष्ठ ने मार डाला तब से त्रिपृष्ठ नरेन्द्र को वासुदेव पदवी प्राप्त हुई। एक समय वासुदेव अपनी शैय्या पर लेट रहे थे, बाहर से आये हुए गायक लोग मधुर गान सुना रहे थे, त्रिपृष्ठ ने अपने शैय्यापालक को यह आदेश किया कि मुझे नींद आ जाने पर संगीत बंद कर देना, वासुदेव निद्राधीन हो गया तथापि गायन का मधुर रस आस्वादन होने से गायन बन्द नहीं किया, क्षण भर में राजेन्द्र की निद्रा खल गई, तब रुष्ट होकर शीघ्र ही शैय्यापाल के कानों में उकलता हुआ, कथीर (शीशा) डलवा दिया, वह मरकर नरक में गया, वासुदेव ने 84 लाख वर्ष का आयुष्य भोगा। बीसवें भव में - त्रिपृष्ठ वासुदेव का जीव मर कर सातवीं नरक में उत्पन्न हुआ। इक्कीसवें भव में - सिंह हुआ । बावीसवें भव में - चौथी नरक में उत्पन्न हुआ, नरक से निकल कर तिर्यंच और मनुष्य भव संबंधी कई क्षुल्लक भव किये। ॐ . . . . . . . . . . . .... . . . . . . . Jain Education International . . . ..... For Personal Private Use Only M ainelibrary.ongs 222

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