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गुरु गौतम स्वामी
मगध देश में गोबर नामक गांव में वसुभूति नामक एक गौतम गोत्री ब्राह्मण रहता था। उसे पृथ्वी नामक स्त्री से इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति नामक तीन पुत्र हुए।
अपावा नगरी में सोमिल नामक एक धनाढ्य ब्राह्मण उस समय के ब्राह्मणों में महाज्ञानी माने जाते अन्य आठ द्विजों को भी यज्ञ करने बुलाया था। सबसे बड़े इन्द्रभूति गौतम गोत्री होने से गौतम नाम से भी पहचाने जाते थे।
यज्ञ चल रहा था, उस समय वीर प्रभु को वंदन की इच्छा से आते देवताओं को देखकर गौतम ने अन्य ब्राह्मणों को कहा, 'इस यज्ञ का प्रभाव देखो! हमारे मंत्रों से आमंत्रित देवता प्रत्यक्ष यहां यज्ञ में आ रहे हैं।' उस समय यज्ञ का बाडा छोड़कर देवताओं को समवसरण में जाता देखकर लोग कहने लगे, हे नगरजनों! सर्वज्ञ प्रभु उद्यान में पधारे हैं। उनकी वंदना करने के लिये ये देवता हर्ष से जा रहे हैं। 'सर्वज्ञ' ऐसे अक्षर सुनते ही मानो किसी ने वज्रपात किया हो उस प्रकार इन्द्रभूति कोप कर बोले, अरे! धिक्कार ! धिक्कार ! मरु देश के मनुष्य जिस प्रकार आम्र छोड़कर करील के पास जावे वैसे लोग मुझे छोड़कर उस पाखंडी के पास जाते हैं। क्या मेरे से अधिक कोई अन्य सर्वज्ञ है ? शेर के सामने अन्य कोई पराक्रमी होता ही नहीं । कदापि मनुष्य तो मूर्ख होने से उनके पास जाएं तो भले जाएं मगर ये देवता क्यों जाते हैं? इससे उस पाखंडी का दंभ कुछ महान लगता है। इस प्रकार अहंकार से बोलता हुआ गौतम पांच सौ शिष्यों के साथ समवसरण में सुरनरों से घिरे हुए श्री वीर प्रभु जहां
विराजमान थे वहां आ पहुंचा। प्रभु की समृद्धि और चमकता तेल देखकर आश्चर्य पाकर इन्द्रभूति बोल उठा, 'यह क्या?' इतने में तो 'हे गोतम ! इन्द्रभूति आपका स्वागत है।' जगद्गुरु ने अमृत जैस मधुर वाणी में कहा। यह सुनकर गौतम सोच में डूबा कि 'क्या यह मेरे गोत्र और नाम को भी जानता है? जानता ही होगा न, मुझ जैसे जगप्रसिद्ध मनुष्य को कौन नहीं जानेगा? परंतु यदि मेरे हृदय में रहे संशय को वह बताये और उसे अपनी ज्ञान संपत्ति से छेद डाले तो वे सच्चे आश्चर्यकारी हैं, ऐसा मैं मान लूं।
इस प्रकार हृदय में विचार करते ही ऐसे संशयधारी इन्द्रभूति को प्रभु ने कहा, हे विप्र ! जीव हैं कि नहीं? ऐसा तेरे हृदय में संशय है, परंतु है गौतम! जीव है, वह चित्त, चैतन्य विज्ञान और संज्ञा वगैरह लक्षणों से जाना जा सकता है। यदि जीव न हो तो पुण्य-पाप का पात्र कौन ? और तुझे यह यज्ञ - दान वगैरह करने का निमित्त भी क्या ? इस प्रकार के प्रभु महावीर के चरणों में नमस्कार करके बोला, हे स्वामी! ऊंचे वृक्ष का नाप लेने वामन पुरुष की भांति मैं दुर्बुद्धि से आपकी परीक्षा लेने यहां आया था। हे नाथ! मैं दोषयुक्त हूं, फिर भी आपने मुझे भली प्रकार से प्रतिबोध दिया है। तो अब संसार से विरक्त बने हुए मुझको दीक्षा दीजिये। अपने प्रथम गणधर बनेंगे ऐसा जानकर प्रभु ने उनको पांच सौं शिष्यों के साथ स्वयं दीक्षा दी। उस समय कुबेर देवता ने चारित्र धर्म के उपकरण ला दीये और पांच सौ शिष्यों के साथ इन्द्रभूति ने देवताओं ने अर्पण किये हुए धर्म के उपकरण ग्रहण किये।
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इन्द्रभूति की तरह अग्निभूति वगैरह अन्य दस द्विजों ने बारी-बारी से आकर अपना संशय प्रभु महावीर से दूर किया, इसलिये अपने शिष्यों के साथ दीक्षा ग्रहण की।
प्रभु
वीर विहार करते करते चम्पानगरी पधारे। वहां साल नामक राजा तथा महासाल नामक युवराज प्रभु की वंदना करने आये। प्रभु की देशना सुनकर दोनों प्रतिबोध पाये। उन्होंने अपने भानजे गागली का राज्याभिषेक