Book Title: Jain Dharm Darshan Part 01
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 105
________________ . . . . . पाणे - पानी में। मिच्छा - मिथ्या हो। भावार्थ : हे गुरु महाराज! आप इच्छापूर्वक आज्ञा प्रदान करो। मैं दिन (रात्रि) में किये हुए अपराधों (अतिचारों) की क्षमा मांगने के लिये आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूं। आपकी आज्ञा प्रमाण है - दिन संबंधी अतिचारों की (रात्रि संबंधी अतिचारों की) क्षमा मांगता हूं : आहार में, पानी में, विनय में, वैयावृत्य में (सेवासुश्रुषा में) बोलने में, बातचीत करने में, आप से ऊंचे आसन पर बैठने में समान आसन पर बैठने में, बीच में बोलने में भाषण के बाद बोलने में जो कछ अप्रीति अथवा विशेष अप्रीतिकारक व्यवहार द्वारा जो कोई अत्याचार लगा हो आप ने जानते हो अथवा मुझ से जो कोई आपकी सूक्ष्म या स्थूल (अल्प या अधिक) अविनय-आशातना हुई जो चाहे वे मुझे ज्ञात हो आप न जानते हो, आप जानते हो मैं नहीं जानता हूं, आप और मैं दोनों जानते हो, अथवा मैं और आप दोनों न जानते हों। वे मेरे सव दुष्कृत्य मिथ्या हों अर्थात् उनकी मैं माफी चाहता हूं। तीन बार 6. गुरु वन्दन सूत्र (तिक्खुत्तो का पाठ) तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेमि, वंदामि, णमंसामि, सक्कारेमि, सम्माणेमि, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं, पज्जुवासामि मत्थएण वंदामि | मूल अर्थ तिक्खुत्तो आयाहिणं दक्षिण ओर से पयाहिणं प्रदक्षिणा करेमि करता हूं वंदामि गुणग्राम (स्तुति) करता हूं णमंसामि नमस्कार करता हूँ सक्कारेमि सत्कार करता हैं सम्माणेमि सम्मान करता है कल्लाणं कल्याण रूप मंगलं मंगल रूप देवयं धर्मदेव रूप चेइयं ज्ञानवंत अथवा सुप्रशस्त मन के हेतु रूप की पज्जुवासामि पर्युपासना (सेवा) करता हूं मत्थएण मस्तक नमा कर वंदामि वन्दना करता हूं भावार्थ - हे पूज्य! दोनों हाथ जोड़कर दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा करता हूं। आपका गुणग्राम (स्तुति) करता है। पंचांग (दो हाथ, दो घुटने और एक मस्तक-ये पांच अंग) नमा आपका सत्कार करता हूं। आप को सम्मान देता हूं। आप कल्याण रूप हैं, मंगलरूप हैं, आप धर्म देव रूवरूप हैं, ज्ञानवन्त हैं अथवा मन को प्रशस्त बनाने वाले हैं। ऐसे आप गुरु महाराज की पर्युपासना (सेवा) करता हूं और मस्तक नमा कर आपको वन्दना करता हूं। 90000000000 00000000000000001 PPPRPPITPeasomnimateraseeMAANNA0000000000000000 manjarnenorary.org

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