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हुए भी मर्यादित आदर्श जीवन जी सकते है। श्रावक के घर में जन्म लेने मात्र से श्रावक नहीं बनता, पर व्रत ग्रहण करने वाले ही श्रावक कहलाता है। यह एक ऐसा गुण है जो जन्मजात प्राप्त नहीं होता, अर्जित करना पड़ता है। आत्मिक उन्नति चाहने वाले प्रत्येक गृहस्थ साधक का कर्तव्य है कि वह समझ बूझ कर श्रावक-धर्म को धारण करे, अव्रती से व्रती बने एवं यथा संभव आस्रवों/प्रवृत्तियों से बचने की कोशिश करें। श्रावक कौन ? जो धर्म सुनता है, वह श्रावक-धर्म श्रृणोतीति श्रावकः। जो श्रद्धाशील होता है, वह श्रावक - श्रद्धां करोतीति श्रावकः। जो धर्म और पुण्य कर्म करता है - पुण्यं श्रवतीति श्रावकः।
श्रृणोति जिनवचनमिति श्रावकः - जो जिनेश्वर भगवंतों की वाणी जिनवाणी श्रद्धा से सुने वह श्रावक है। अथवा जिसने तत्वार्थ श्रद्धा आत्मसात कर ली, जिसकी जीवादि तत्त्वों पर अडिग श्रद्धा है वह श्रावक हैं। श्री उमास्वामी ने "श्रावक-प्रज्ञप्ति" में श्रावक का स्वरूप बताते हुए कहा है - सम्यग्दर्शन एवं अणुव्रतादि ग्रहण कर जो प्रतिदिन साधुओं से प्रधान समाचार-साधु श्रावक का आचार सुने उसे भगवान ने श्रावक कहा है। ___ अर्थात जो दृढ श्रद्धा को धारण करने वाला हो, जिनवाणी श्रद्धा पूर्वक सुनने वाला हो, देशव्रती हो, प्राप्त धन को सत्कार्यो में व्यय करने वाला हो और पापों का छेदन करने वाला हो, वह श्रावक कहलाता है। एक आचार्य ने श्रावक के तीन शब्दों का अलग अलग अर्थ करके कहा है।
श्रा - यानी श्रद्धावान व- यानी विवेकवान क- यानी क्रियावान श्रावक श्रद्धापूर्वक आंशिक रूप से सावध (पाप) योगों का त्याग कर क्रियावान रहता हुआ विवेक पूर्वकजीवन यापन करता है। और आत्म साधना में भी तत्पर रहता है।
आगमों में श्रावक का ही दसरा नाम श्रमणोपासक भी मिलता है। श्रमणानपास्ते सेवत इति श्रमणोपासकः - श्रमणों की उपासना सेवा करने वाला श्रमणोपासक होता है। श्रमणोपासक आत्म लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निग्रंथ श्रमणों द्वारा धर्ममार्ग का ज्ञान प्राप्त कर उस पर अग्रसर होने का प्रयत्न करता है।
अन्तिम समय में क्या करोगे?
अथाह संसार सागर के प्रवाह में प्रवाहित मनुष्य संसार के सुखों को, इन्द्रियों के भोगों को, पदार्थों के स्वामित्व को, धन, पुत्र तथा विविध कामनाओं और एषणाओं को ही जीवन का लक्ष्य बनाकर इस बहुमूल्य अवसर को खो देता है। अन्ततः परीक्षा की घड़ी की तरह काल की घड़ी जब आती है, तो विदा होते समय सिर पर पापों, दुष्कर्मों एवं दुराचरणों का भारी भरकम भयंकर बोझ लदा दिखाई देता है, तब मन में भारी पश्चाताप, घोर संताप और अशान्ति होती है, पर अब क्या हो सकता है, जब चिड़िया चुग गई खेत! सौदा बिक गया, अब कीमत लगाने से क्या फायदा? इसीलिए भगवान महावीर ने मनुष्यों को सावधान करते हुए कहा - जरा जाव न पीडेई, वाही जाव न वड्ढई। जाविंदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे ।।
जब तक बुढ़ापा आकर पीड़ित नहीं कर लेता, जब तक शरीर में किसी प्रकार की व्याधि नहीं बढ़े, और जब तक इन्द्रियां क्षीण न हों, तब तक धर्माचरण कर लो। ये तीनों आ जाएंगे तो फिर धर्माचरण होना कठिन है।
अन्तिम समय में विशाल वैभव, अपार धनधान्य राशि अथवा पुत्रकलत्रादि कोई भी साथ नहीं देता। यह सारा संसार, यहां की परिस्थितियां ज्यों की त्यों दिखाई देती हैं, मगर उस समय वे सब उपयोग से बाहर होती हैं।
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