Book Title: Jain Dharm Darshan Part 01
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust
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"निकाचित घोर पाप का बन्ध करते ॐ राजा श्रेणिक
भट्टी में तपकर लोहा बनी सुइयाँ
नरक आयु भागता हुआ श्रेणिक का जीव
दृष्टांत महाराजा श्रेणिक धर्म प्राप्त करने से पूर्व मिथ्यात्व अवस्था में थे। वह शिकार व्यसनी थे। एक दिन शिकार करते एक गर्भिणी हिरणी को तीर से बींध दिया। वह हिरणी गर्भ के साथ अत्यंत वेदना कष्ट से तड़पती रही किंतु महाराज श्रेणिक यह देखकर हर्षित हुए और सोचने लगे कि मैं कितना बहादुर हूँ कि एक ही तीर से दोनों को आहत कर दिया। इस पाप कृत्य की अनुमोदना, प्रशंसा से उनका नरक आयुष्य का बंध गाढ निकाचित हो गया। कालान्तर में वे प्रभु महावीर के उपासक बने और सम्यक्त्व तथा तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया परंतु पूर्व में बँधा हुआ नरकायुष्य का निकाचित कर्म उन्हे भोगना ही पड़ा।
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स्वरूप में है उसे वैसा ही देखना कहना जिस स्वरूप में है उससे विपरीत देखना कहना
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कर्मबंध के 5 हेतु (कारण)
1. मिथ्यात्व
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अनंतज्ञानी प्रतिपादित करते हैं कि मिथ्यात्व अति भयंकर कोटि का पाप है। वह पाप जब तक रहता है तब तक वस्तुतः एक भी पाप नहीं छूटता है। जो पदार्थ जैसा है जिस मानना यह सम्यग्दर्शन है। ठीक इससे विपरीत जो पदार्थ जैसा है मानना वह मिथ्या दर्शन है।
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धर्म को सही अर्थ में धर्म मानना यह सम्यग् दर्शन है। और इससे विपरीत अधर्म में भी धर्म बुद्धि रखना, संसार पोषक-विषय-कषाय, राग-द्वेषादि में भी धर्म बुद्धि रखना यह मिथ्यात्व है। आत्मा-परमात्मा, पुण्य पाप, स्वर्ग-नरक, लोक-परलोक, आश्रव संवर, निर्जरा और बंध, कर्म-धर्म तथा मोक्षादि तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धा है। इन तत्त्वों का जो स्वरूप है, जैसा स्वरूप एवं जो अर्थ है उसी स्वरूप एवं अर्थ में इन तत्त्वों को मानना जानना ही सम्यग् श्रद्धा कहलाती है। इससे विपरीत या तो इन तत्त्वों को न मानना, न समझना, न जानना या विपरीत अर्थ में मानना-जानना आदि मिथ्यात्व कहलाता है। यह मिथ्यात्व कर्म बंध कारक है। मिथ्यात्व कर्म बंधन में मूलभूत कारण है। यह बताते हुए कहा है कि कपड़े की उत्पत्ति में तन्तु, घड़ा बनाने में मिट्टी व धान्यादि की उत्पत्ति में बीज कारण है उसी तरह कर्म की उत्पत्ति में मिथ्यात्व कारण है। 2. अविरति : न + विरति = अविरति है ।
अर्थात् पाप त्याग की प्रतिज्ञा न होना अविरति कहलाता है। हिंसादि पाप क्रिया यद्यपि प्रतिपल नहीं होती, तथापि उसका प्रतिज्ञा पूर्वक त्याग किये बिना अविरति का पाप चालू रहता है। इससे प्रतिसमय कर्मबंध होता है।
जिस तरह धर्म करने, कराने तथा अनुमोदना करने से पुण्यबंध होता है, पापकर्मों का नाश होता है, इसी तरह पाप करने, कराने तथा पाप की अनुमोदना अपेक्षा रखने से भी कर्मबंध होता है। हम पाप नहीं करते, फिर भी पाप न करने की प्रतिज्ञा लेने से भय क्यों होता है? यदि गहराई से विचार करें तो पता चलता है कि मन में कही न कहीं पाप की अपेक्षा रही हुई है। यदि ऐसा प्रसंग आ गया तो किये बिना कैसे रहूँगा ? वहाँ तब पाप की अपेक्षा है, राग है। इससे पाप न करते हुए भी पाप अविरति चालू रहता है।
व्यवहार में देखा जाता है कि यदि किसी व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के साथ व्यापार में साझा है, भले फिर वह कभी जाकर दुकान को संभाले ही नहीं, तथापि लाभहानि का हिस्सेदार उसको भी होना ही पड़ता है। इसी
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