Book Title: Jain Dharm Darshan Part 01
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 97
________________ - अरिहंत के 12 गुण अरिहंत = अरि (शत्रु) + हंत (नाश) आत्मा के शत्रुओं का नाश करने वाले, चार घाती कर्मों का क्षय करने वाले अरिहंत के आठ प्रातिहार्य तथा चार मूल अतिशय कुल बारह गुण इस प्रकार है आठ प्रातिहार्य 1. अशोक वृक्ष :- जहाँ भगवान का समवसरण रचा जाता है वहाँ उनकी देह से बारह गुणा बड़ा अशोक वृक्ष (आसोपालव के वृक्ष) की रचना देवता करते हैं। उसके नीचे भगवान बैठकर देशना (उपदेश) देते हैं। 2. सुरपुष्पवृष्टि :- एक योजन प्रमाण समवसरण की भूमि में देव सुगंधित पंचवर्ण वाले पुष्पों की घुट में प्रमाण वृष्टि करते हैं। वे पुष्प जल तथा स्थल में उत्पन्न होते हैं और भगवान के अतिशय से उनके जीवों को किसी प्रकार की बाधा पीड़ा नहीं होती। 3. दिव्य-ध्वनि :- भगवान की वाणी को देवता मालकोश राग, वीणा वंसी आदि से स्वर पूरते हैं। 4. चामर :- रत्नजड़ित स्वर्ण की डंडी वाले चार जोड़ी श्वेत चामर समवसरण में देवता भगवान को वींझते हैं। 5. आसन :- भगवान के बैठने के लिए रत्नजड़ित सिंहासन की देवता रचना करते हैं। 6. भामंडल :- भगवान के मुखमंडल के पीछे शरद ऋतु के सूर्यसमान उग्र तेजस्वी भामंडल की रचना देवता करते हैं उस भामंडल में भगवान का तेज संक्रमित होता है। यदि यह भामंडल न हो तो भगवान का मुख दिखलाई न दे, क्योंकि भगवान का मुख इतना तेजस्वी होता है जिसके सामने कोई देख नहीं सकता। 7. दुंदुभि :- भगवान के समवसरण के समय देवता - देवदुंदुभि बजाते है। वे ऐसा सूचन करते है कि हे भव्य प्राणियों ! तुम मोक्ष नगर के सार्थवाह तुल्य इस भगवान की सेवा करो, उनकी शरण में जाओ। 8. छत्र :- समवसरण में देवता भगवान के मस्तक के ऊपर शरदचंद्र समान उज्जवल तथा मोतियों की मालाओं से सुशोभित उपरा-उपरी तीन-तीन छत्रों की रचना करते हैं। भगवान स्वयं समवसरण में पूर्व दिशा की तरफ मुख करके बैठते हैं और अन्य तीन (उत्तर, पश्चिम, दक्षिण) दिशाओं में देवता भगवान के ही प्रभाव से प्रतिबिंब रचकर स्थापन करते हैं। इस प्रकार चारों तरफ प्रभु विराजमान है ऐसा समवसरण में मालूम पड़ता है। चारों तरफ प्रभु पर तीन-तीन छत्रों की रचना होने से बारह छत्र होते है। अन्य समय मात्र प्रभु पर तीन छत्र ही होते हैं। ये प्रातिहार्य भगवान को केवलज्ञान होने से लेकर निर्वाण अर्थात समय तक सदा साथ रहते हैं। चार मूल अतिशय (उत्कृष्ट गुण) 9. अपायापगमातिशय :- अपाय अर्थात् उपद्रवों का, अपगम अर्थात् नाश। वे स्वाश्रयी और पराश्रयी दो प्रकार के हैं। स्वाश्रयी के दो प्रकार है-द्रव्य से तथा भाव से। द्रव्य से स्वाश्रयी अपाय अर्थात् सब प्रकार के रोग - अरिहंत AAAAAAAAAA...... P .. 91 टोsuhaRPrivatee **Romajahirenioraly dig**

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