Book Title: Jain Dharm Darshan Part 01
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 100
________________ अथवा मूल्यवान कोई भी वस्तु ग्रहण न करना । 4. मैथुन विरमण मन, वचन और काया से ब्रह्मचर्य का पालन करना । 5. परिग्रह विरमण - कोई भी वस्तु का संग्रह न करना । वस्त्र, पात्र, धर्मग्रंथ, ओघा आदि संयम पालनार्थ उपकरण आदि जो जो वस्तुएं अपने पास हों उन पर भी मोह - ममता नहीं करना । - 24 से 28 - पाँच प्रकार के आचारों का पालन करने वाले। पाँच आचार यह है - 1. ज्ञानाचार ज्ञान पढ़े और पढ़ावे, लिखे और लिखावें, ज्ञान भंडार करे और करावें तथा ज्ञान प्राप्त करने वालों को सहयोग दें। 2. दर्शनाचार - शुद्ध सम्यक्त्व को पाले और अन्य को सम्यक्त्व उपार्जन करावे । सम्यक्त्व से पतित होने वालों को समझा बुझाकर स्थिर करें। 3. चारित्राचार - स्वयं शुद्ध चारित्र को पालें, अन्य को चारित्र में दृढ करें और पालने वाले की अनुमोदना करें। 4. तपाचार छः प्रकार के बाह्य तथा छः प्रकार के आभ्यंतर इस प्रकार बारह प्रकार से तप करें, अन्य को करावें तथा करने वाले की अनुमोदना करें। 5. वीर्याचार धर्माचरण में अपनी शक्ति को छुपावे नहीं अर्थात् सर्व प्रकार के धर्माचरण करने में अपनी शक्ति को संपूर्ण रीति से विकसित करें। 29 से 36 - पांच समिति तथा तीन गुप्ति का पालन करने वाले । चारित्र की रक्षा के लिए पांच समिति और तीन गुप्ति इस आठ प्रवचन माता को पालने की आवश्यकता है। इस प्रकार है : 1. ईया समिति - जब चले फिरे तो जीवों की रक्षा के लिए उपयोगपूर्वक चले अर्थात् चलते समय दृष्टि को नीचे रखकर मुख को आगे साढे तीन हाथ भूमि को देखकर चले । 2. भाषा समिति - निरवद्य पापरहित और किसी जीव को दुःख न हो ऐसा वचन बोले । - 3. एषणा समिति - वस्त्र, पात्र, पुस्तक, उपकरण आदि शुद्ध, विधिपूर्वक और निर्दोष ग्रहण करें 4. आदान-भांड-पात्र निक्षेपण समिति जीवों की रक्षा के लिए वस्त्र, पात्र आदि जयणा पूर्वक ग्रहण करना और जयणा से रखना । 5. पारिष्ठापनिका समिति - जीव रक्षा के लिए जयणा पूर्वक मल, मूत्र, श्लेष्म आदि शुद्ध भूमि में परठें। इस प्रकार पांच समिति का पालन करें। - - ज्योगभूत - तीन गुप्ति- 1. मन गुप्ति - पाप कार्य के विचारों से मन को रोके अर्थात् आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान न करें। 2. वचन गुप्ति दूसरों को दुःख हो ऐसा दूषित वचन नहीं बोले, निर्दोष वचन भी बिना कारण न बोलें। 3. काय गुप्ति- शरीर को पाप कार्य से रोके, शरीर को बिना प्रमार्जन किये न हिलावे - चलावे । यह आचार्य के छत्तीस गुणों का संक्षिप्त वर्णन किया है। उपाध्यायजी के पच्चीस गुण जो स्वयं सिद्धांत पढे तथा दूसरों को पढावें और पच्चीस गणु युक्त हो उसे उपाध्याय कहते हैं। साधुओं में आचार्य राजा समान है और उपाध्यायजी प्रधान के समान है। उपाध्याय जी के पच्चीस गुण इस प्रकार है 94al 11 अंगों तथा 12 उपांगों को पढे और पढावें । 1. चरण सत्तरी को और 1. करण सित्तरी को पालें। 1- 11 अंग 1. आचारांग (आयारो),2. सूत्रकृतांग (सूयगडों) 3. स्थानाङ्ग ( ठाणं ) 4. समवायाङ्ग (समवाओ ) 5. व्याख्या प्रज्ञप्ति (विवाह पणती, भगवई ) 6. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग(णायाधम्मकहाओ ) 7. उपासकदशाङ्ग (उवासगदसाओ) 8. अन्तकृद्धशाङ्ग (अंतगदसाओं) 9. अणुत्तरौपपातिक दशा (अणुत्तरोववाइयदसाओ ) 10. प्रश्न व्याकरण (पण्हावागरणाई) 11. विपाक सूत्र (विवागसुयं) 12- 23 उपांग से इसे इसे

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