Book Title: Jain Dharm Darshan Part 01
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 50
________________ AAAAAAAAAAS AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * . जैन दर्शन में विभिन्न स्थलों पर और विभिन्न प्रसंगों पर सत्, सत्त्व, तत्त्व, तत्त्वार्थ, अर्थ, पदार्थ और द्रव्य इन शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया गया है। जैन तत्त्वज्ञों ने तत्त्व की विशुद्ध व्याख्या करते हुए कहा है कि तत्त्व का लक्षण सत् है और यह सत् स्वतः सिद्ध है। तत्त्वार्थ सूत्र 5/30 में कहा गया है - "उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तं सत्" - अर्थात् जो उत्पाद (उत्पन्न होना), व्यय (नष्ट होना) और ध्रौव्य (हमेशा वैसा ही रहना) इन तीनों से युक्त है वह सत् है। क्योंकि नवीन अवस्थाओं की उत्पत्ति और पुरानी अवस्थाओं का विनाश होते रहने पर भी वह अपने स्वभाव का कभी त्याग नहीं करता है। जैसे सुवर्ण के हार, मुकुट, कुण्डल, अंगूठी इत्यादि अनेक रुप बनते है तथापि वह सुवर्ण ही रहता है, केवल नाम और रुप में अंतर पड़ता है। वैसे चारो ही गतियो व चौरासी लाख जीवयोनियों में परिभ्रमण करते हुए जीव की पर्यायें (Modes) परिवर्तित होती रहती है । गति की अपेक्षा नाम और रुप बदलते रहते है, किंतु जीव द्रव्य हमेशा बना रहता है। तत्त्व कितने हैं ? तत्त्व कितने है इस प्रश्न का उत्तर अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग दिया है। संक्षिप्त और विस्तार की दृष्टि से प्रतिपादन की तीन मत प्रणालियाँ है। -- पहली प्रणाली के अनुसार तत्त्व दो हैं 1. जीव 2. अजीव - दूसरी प्रणाली के अनुसार तत्त्वों की संख्या सात है 1. जीव 2. अजीव 3. आश्रव 4. बंध 5. संवर 6. निर्जरा 7. मोक्ष - तीसरी प्रणाली के अनुसार तत्त्वों की संख्या नौ हैं 1. जीव 2. अजीव 3. पुण्य 4. पाप 5. आश्रव 6. बंध 7. संवर 8. निर्जरा 9. मोक्ष दार्शनिक ग्रंथों में पहली और दूसरी मत प्रणाली मिलती है। आगम साहित्य में तीसरी मत प्रणाली उपलब्ध है। 1. आगम साहित्य में उत्तराध्ययन सूत्र, स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र, आचार्य हरिभद्रसूरी का षड्दर्शनसमुच्चय आचार्य कुंदकुंद का समयसार तथा पंचास्तिकाय में भी नौ तत्त्वों का उल्लेख है। 2. द्रव्यसंग्रह में तत्त्वों के दो भेद बताये गये हैं। 3. आचार्य श्री उमास्वाति ने तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के प्रथम अध्याय के चौथे सूत्र में सात तत्त्वों का उल्लेख किया है - जीव, अजीव, आसव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। पुण्य और पाप इन का आसव या बंध तत्त्व में समावेश कर तत्त्वों की संख्या सात मानी गई है। नव तत्त्व का संक्षेपः जीव और अजीव ये दो प्रधान तत्त्व है, शेष सातों तत्त्वों का समावेश इन दो तत्त्वों में हो जाता है। जीव जीव. संवर. निर्जरा मोक्ष 2. अजीव अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, बंध संवर और निर्जरा जीव के ही शुभ-अध्यवसाय रुप होने से वे जीव-स्वरुप है और पुण्य तथा पाप कर्मस्वरुप होने से वे अजीव (जड़) है। आध्यात्म की दृष्टि से वर्गीकरणः ___ आध्यात्मिक दृष्टि से तत्त्व तीन प्रकार के हैं - ज्ञेय, हेय और उपादेय। जो जानने योग्य है वह है ज्ञेय (ज्ञांतु योग्यं ज्ञेयम्), जो छोड़ने योग्य है वह हेय (हातुं योग्यं हेयम्) और जो ग्रहण करने योग्य है वह उपादेय (उपादातुं योग्यं उपादेयम्) 2 -02-2- 2- . .. . AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA *ARRERNAROAeEAAAAAAAAAAAAAAAADAR CHAR - 0 Pesiness SOORAO90 00

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