Book Title: Jain Dharm Darshan Part 01
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 49
________________ तत्त्व मीमांसा अनादि अनंत काल से संसार में परिभ्रमण करते हुए जीव को यथार्थ स्वरुप की प्रतीतिपूर्वक का यथार्थज्ञान करानेवाला यदि कोई है तो वह सम्यग्दर्शन है। ******* सम्यग्दर्शन कहो, यथार्थदर्शन कहो, आत्मदर्शन कहो, मोक्षमार्ग का दर्शन कहो तत्वप्रति कहो - ये सब एक ही वस्तु का बोध कराने वाले शब्द है । जब तक जीव सम्यग्दर्शन को नहीं प्राप्त करता तब तक उसका संसार परिभ्रमण अविरत चालू ही रहता है। उसकी दिशा, उसका पुरुषार्थ, उसका ज्ञान, उसका आचार और उसका विचार ये सब भ्रान्त होते हैं। उसका धर्म भी अधर्म बनता है और संयम भी असंयम बनता है। संक्षेप में कहे तो उसकी सब शुभ करणी भी अशुभ में ही बदलती है, क्योंकि उसका दर्शन ही मिथ्या है। यदि मोक्ष को प्राप्त करना हो, कर्म से मुक्त होना हो, अनादि काल की विकृतियों का विनाश करना हो, सब धर्म को धर्म का वास्तविक स्वरुप देना हो और आचरित धर्म को सार्थक बनाना हो, तो सम्यग्दर्शन का प्रकटीकरण अत्यंत आवश्यक और अनिवार्य हैं। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के प्रकरण में कहा गया है कि “ तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' - अर्थात् तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है और तत्त्वों की सही-सही जानकारी होना सम्यग्ज्ञान है। तो सहज ही जिज्ञासा होती है कि तत्त्व क्या है ? और वे कितने हैं ? तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान और उस पर यथार्थ प्रतीति (विश्वास - श्रद्धा) होने पर ही आध्यात्मिक विकास का द्वार खुलता है। अर्थात् मोक्ष मंजिल की ओर आत्मा का पहला कदम बढ़ता है। अतएव आत्मा के अभ्युत्थान के लिए तत्त्व का ज्ञान करना परम आवश्यक है। जीव को मोक्षमार्ग पर चलने के लिए प्रकाश की आवश्यकता रहती है। तत्त्वज्ञान का प्रकाश यदि उसके साथ है तो वह इधर-उधर भटक नहीं सकता और मोक्ष के राजमार्ग पर आसानी से कदम बढाता चलता है। यदि जीव के साथ तत्त्वज्ञान का आलोक नहीं है तो अन्धकार में भटक जाने की सभी संभावनाएँ रहती है। अतएव प्रत्येक आत्मा को तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए ताकि वह अपना साध्य निश्चित करके उसे प्राप्त करने के उपायों का अवलम्बन लेता हुआ अपनी मंजिल की ओर आसानी से चलता रहे। भारतीय साहित्य में तत्त्व के संबंध में गहराई से खोज की गयी है। तत् शब्द से तत्त्व शब्द बना है। किसी भी व्यक्ति के साथ बातचीत करते हुए, जब हम जल्दी में उसका भाव जानना चाहते हैं तो बातचीत को तोड़ते हुए कह देते हैं - 1. आखिर तत्त्व क्या है ? तत्त्व की बात बताइये अर्थात् बात का सार क्या रहस्य को पाने के लिए हम बहुधा अपने व्यवहार तत्त्व शब्द का प्रयोग करते हैं। ? सार, भाव, मतलब या 2. दैनिक लोकव्यवहार में राजनीति में धर्म और साहित्य आदि सभी क्षेत्रों में तत्त्व शब्द सार या रहस्य के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। चिंतन मनन का प्रारंभ तत्त्व से ही होता हैं 'किं तत्त्वम्' - तत्त्व क्या हैं ? यही जिज्ञासा तत्त्व दर्शन का मूल है। जीवन में तत्त्वों का महत्वपूर्ण स्थान है। जीवन में से तत्त्व को अलग करने का अर्थ है आत्मा के अस्तित्व को इन्कार करना । तत्त्व की परिभाषाः 43 al & Private Use Only तत् शब्द से 'तत्त्व' शब्द बना है । संस्कृत भाषा में तत् शब्द सर्वनाम हैं। सर्वनाम शब्द सामान्य अर्थ के वाचक होते है। तत् शब्द से भाव अर्थ में "त्व" प्रत्यय लगकर तत्त्व शब्द बना हैं, जिसका अर्थ होता है उसका भाव “तस्य भावः तत्त्वम्” अतः वस्तु स्वरूप को और स्वरूप भूत वस्तु को तत्त्व कहा जाता है। www.jainelibrary.org

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