Book Title: Jain Dharm Darshan Part 01
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 53
________________ नव तत्त्व बोध : सागर और नाव का दृष्टांत नव तत्त्व को सुगम रीति से समझाने के लिए प्राचीन आचार्यों ने सागर और नाव का दृष्टांत दिया है। 1. जीव (नौका) :- नवतत्त्वों में पहला तत्त्व है जीव। इसका गुण है चेतना/उपयोग। जिस प्रकार समुद्र में नौका की स्थिति होती है। उसी प्रकार संसार-सागर में जीव की स्थिति समझो। 2. अजीव (पानी) :- समुद्र में पानी रहता है, जिसमें नाव चलती है। इस संसार में अजीव तत्त्व रूपी पानी चारों तरफ भरा है। इसमें सशरीरी जीव नौका के समान है। पानी के अभाव में नाव नहीं चल सकती, इसी प्रकार संसार में अजीव तत्त्व के सहयोग के बिना अकेला जीव कुछ नहीं कर सकता। नाव रात-दिन पानी में रहती है। सशरीरी जीव भी संसार में सतत् जड़ (अजीव) पदार्थों के संपर्क में रहता है। उनके बिना वह कुछ नहीं कर सकता। 3. पुण्य (अनुकूल पवन):- समुद्र में नाव को सुखपूर्वक चलने के लिए अनुकूल पवन की जरुरत रहती है। पवन के रुख के सहारे नाव निर्विघ्नपूर्वक चल सकती हैं। जीव अपने शुभ कर्मरूपी पुण्यों के सहारे संसार में सुखपूर्वक निर्विघ्न जीवन यात्रा चला सकता है। 4. पाप (प्रतिकूल पवन) :- कभी - कभी समुद्र में प्रतिकूल हवा चलती है तो नाव चलाना बहुत कठिन हो जाता है। नाव डगमगाने लगती है। हिचकोले खाती है। कभी - कभी भँवर में भी फंस जाती है। इसी प्रकार पाप के उदय से जीव संसार में कष्ट पूर्वक यात्रा करता है। कभी - कभी तो उसका जीवन भी जोखिम में पड़ जाता है। 5. आसव (छिद्र):- नाव में जब कहीं पर छिद्र हो जाते है, नाव नीचे से टूट-फूट जाती है तो उसके भीतर पानी भरने लगता है। जिस कारण नाव के डूबने का खतरा हो जाता है। पाँच आसव रूपी छिद्रों द्वारा जीव रूपी नाव में कर्म रूपी पानी भरने से वह संसार में डूबने लगती है। जीव राग-द्वेष रूपी दोषों का सेवन करता है, वे ही उसके आसव द्वार रूपी छिद्र हैं। इन दोष रूपी छिद्रों की जितनी अधिकता होगी, उतना ही कर्मरूपी पानी अधिक आयेगा। उस भार से जीव संसार में गहरा डूबता है। 6. संवर (रोक):- कुशल नाविक नाव के छिद्रों को शीघ्र ही बंद करने का प्रयत्न करता है। इसी प्रकार ज्ञानी सम्यक्त्वी जीव आस्रव रूपी छिद्रों को रोकने के लिए संवर की रोक लगाता है। व्रत, प्रत्याख्यान, त्याग, संयम आदि से छिद्रों पर रोक लगती है तो आता हुआ कर्म रूपी जल रुक जाता है। 7. निर्जरा (जल निकासी) :- छिद्रों से नाव में जो पानी भर चुका है, उसे बाहर निकालकर नाव को खाली करना भी जरूरी होता है। तभी उसका भार हलका होता है। निर्जरा तत्त्व आत्मा में प्रवेश पाये कर्मरूपी पानी को व्रत, प्रत्याख्यान तपस्या रूपी बाल्टियों में भर-भरकर बाहर फेंकने का प्रयत्न करता है। इससे आत्मा रूपी नाव हलकी होकर सुरक्षित चल सकती है। आत्मा में स्थित पानी को बाहर निकालने के लिए बाह्य-आभयन्तर तप की आवश्यकता होती है। तप से कर्म-निर्जरा होती है। ____8. बंध (पानी का संग्रह) :- नौका दिन-रात पानी में रहती है। इस कारण उसके सूक्ष्म छिद्रों में भी पानी भरा रहता है। वह पानी लकड़ी के साथ एकमेक हुआ लगता है। परंतु उससे भी लकड़ी के गलने का व भारी होने का भय बना ही रहता है। इसी प्रकार जो कर्म आत्मा में प्रवेश कर चुके है, वे दूध और पानी की तरह या लोहा और अग्नि की तरह आत्मा के प्रत्येक प्रदेश के साथ घुले - मिले रहते है। आत्मा और कर्म का मिले रहना बंध है। ___9. मोक्ष (मंजिल) :- अपनी नाव की पूर्ण सुरक्षा रखता हुआ कुशल नाविक प्रयत्न करके नाव को शीघ्र ही मंजिल रूपी किनारे पर लगाने का पुरुषार्थ करता है। किनारे पर पहुँचने पर वह अपने लक्ष्य को पा PORADOOO20120339000000000000 000001 ABPReshe Presiden9990000000000000RPURPORinalePinte A RANG 20320******* Aalentी.

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