________________
जीव स्वयं अरुपी है - लेकिन वह संसारी अवस्था में पुदगल से बने शरीर में रहता है एवं शरीर के आकार को धारण करता है। यद्यपि स्वभाव से सर्व जीव एक समान होने से उनके भेद नहीं हो सकते फिर भी कर्म के उदय से प्राप्त शरीर की अपेक्षा से जीव के दो, तीन, चार, पाँच, छः, चौदह और विस्तृत रूप से यावत् 563 भेद भी हो सकते हैं। बिना प्राण के प्राणी जीवित नहीं रह सकता। भाव प्राण जीव के ज्ञानादि स्वगुण है जो सिद्धात्माओं में पूर्णतया प्रगट है तथा संसारी जीव को जीने के लिए द्रव्य प्राणों और पर्याप्तियों की अपेक्षा रहती है।
वर्तमान समय में हम संज्ञी पंचेन्द्रिय है। विश्व के अन्य जीव जंतुओं से हम अधिक बलवान और पुण्यवान है। हमें 10 प्राण, 6 पर्याप्तियाँ और आंशिक रुप में भाव प्राण रुप विशिष्ट शक्ति मिली है। इन विशिष्ट शक्तियो का सदपयोग स्व पर हित में करने के लिए सदेव उद्यमवत रहना चाहिए, क्योंकि बार बार शक्तियाँ प्राप्त होना सुलभ नहीं हैं।
उत्कृष्ट पुण्य से प्राप्त ये शक्ति खत्म न हो जाय इसका पूरा ख्याल रखकर स्व-पर हित की पवित्रतम साधना में प्रयत्नशील बने रहना यह मनुष्य जीवन का कर्तव्य है।
विभिन्न दृष्टि से जीव के प्रकार 1. जीव का एक प्रकार - चेतना की अपेक्षा से। 2. जीव के दो प्रकार - संसारी और मुक्त / त्रस और स्थावर की अपेक्षा से 3. जीव के तीन प्रकार - पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद की अपेक्षा से 4. जीव के चार प्रकार - देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति, नरकगति की अपेक्षा से 5. जीव के पाँच प्रकार - एकेन्द्रिय, बेईन्द्रिय,तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय की अपेक्षा से 6. जीव के छः प्रकार - पृथ्विकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और
त्रसकाय की अपेक्षा से
जीव के मुख्य दो भेद :
जीव
मुक्त
संसारी
मुक्त : जो जीव आठ कर्मों का क्षय करके, शरीर आदि से रहित, ज्ञानदर्शन रूप अनंत शुद्ध चेतना में रमण करते है। संसारी : जो जीव आठ कर्मों के कारण जन्म मरण रूप संसार में नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गतियों में परिभ्रमण करते रहते है।
संसारी जीव के दो भेद
स्थावर
त्रस
स्थावर जीव : एक स्थान पर स्थिर रहने वाले जीव स्थावर जीव कहलाते हैं। इन जीवों की केवल एक स्पर्शन
AAAAAAAAAAAAla-lod