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एक समय भरत चक्रवर्ती ने प्रभु को वंदन कर प्रश्न पूछा? स्वामिन्! इस अवसर्पिणी में कितने तीर्थंकर होंगे ? प्रभु ने फरमाया चौबीस होंगे, फिर पूछा हे भगवंत ! इस समवसरण में भावी तीर्थंकर का कोई जीव है? परमात्मा ने फरमाया समवसरण के बाहर द्वारदेश पर त्रिदण्डी का वेष धारण किया हुआ तेरा पुत्र मरिची बैठा है वह 'महावीर' नाम का चौबीसवाँ तीर्थंकर होगा, उसके पहले वह इस भरत क्षेत्र में त्रिपृष्ट नाम का वासुदेव होगा, फिर महाविदेह के अन्दर मूका नगरी में प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती होगा। प्रभु के श्रीमुख से यह वृतान्त सुनकर हर्षित होता हुआ, प्रभु की आज्ञा लेकर भरत प्रसन्न चित्त से मरिची को नमस्कार कर
इस प्रकार बोला- अहो मरिची! आप
भरत क्षेत्र में पहले वासुदेव होंगे, बाद में महाविदेह में प्रियमित्र नाम के चक्रवर्ती होंगे, पश्चात इसी भरत क्षेत्र में चौबीसवें तीर्थंकर होंगे, इसीलिए मैं आपको वंदन करता हूं, चक्रवर्त्यादि पद तो संसार भ्रमण का कारण है पर -
"जिस तरह वर्तमान जिन वन्दनीक है, इसी तरह भावी जिन भी वन्दनीक है"- ऐसा कह कर वंदन करते हुए भरत चक्रवर्ती अपने महल पर चले गये तब मरिची यह बात
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कुलमद और गोत्रमद करके मरिची ने नीच गोत्र उपार्जन किया।
एक समय मरिची के शरीर में व्याधि उत्पन्न हुई, तब मरिची ने सोचा कि मेरा शरीर ठीक हो जाने पर मैं एकाद शिष्य बना लूं, जिससे मेरी बीमारी में सेवा करने में काम आवे, कुछ समय के पश्चात् मरिची स्वस्थ हो गया, तब कपिल (गौतम स्वामी का जीव) नाम का एक राजपुत्र मरिची के पास आया, उससे धर्म सुनकर प्रतिबोध को प्राप्त हुआ, कपिल ने प्रार्थना की मुझे दीक्षा दीजिये । मरिची ने कहा- ऋषभदेव स्वामी के पास जाकर दीक्षा ले लो, तब कपिल ने कहा
धर्म नहीं ?
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सुनकर प्रसन्न मन होता हुआ इस प्रकार अहंकार के वचन बोला- मेरे पिता चक्रवर्ती, मेरे दादा तीर्थंकर और मैं तीर्थंकर, चक्रवर्ती और वासुदेव यह विशेष पद पाकर तीनों ही पदवियां प्राप्त करूंगा। इससे मेरा कुल अत्युत्तम है, ऐसा कह कर अपनी भुजाओं को बारंबार उछालता हुआ नाचने लगा, इस प्रकार
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से में से है है है है है है
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मरिची ने विचारा - यह मेरे योग्य है, तुरन्त कहा प्रभु के पास भी धर्म है व मेरे में भी धर्म अवश्य है, नहीं क्यों ? अच्छी तरह दीक्षा ग्रहण करो यहां पर स्वार्थ की खातिर उत्सूत्र परूपणा की जिससे कोटाकोटि सागर प्रमाण भ्रमण (संसार - भ्रमण) उपार्जन किया।
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