Book Title: Jain Dharm Darshan Part 01
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ 299 9.992226209.02.0200 98498 1. केशी : ऋग्वेद के जिस प्रकरण में वातरशन मुनि का उल्लेख है उसी में केशी की स्तुति की गई है : "केश्यग्निं केशी विषं केशी बिभर्ति रोदसी। केशी विश्वं स्वर्दृशे केशीदं ज्योतिरुच्यते।।" यह केशी, भगवान ऋषभ का वाचक है। उनके केशी होने की परम्परा जैन साहित्य में आज भी उपलब्ध है। उल्लेख मिलता है, वे जब मुनि बने तब उन्होंने चार मुष्टि-लोच कर लिया। दोनों पार्श्व भागों का केश लोच करना बाकी था तब इन्द्र ने भगवान ऋषभ से कहा - इन सुंदर केशों को इसी प्रकार रहने दें। भगवान ने उनकी बात मानी और उसे वैसे ही रहने दिया। इसलिए उनकी मूर्ति के कंधों पर आज भी केशों की वल्लरिका की जाती है। धुंघराले और कंधों लटकते बाल उनकी प्रतिमा के प्रतीक हैं। 2. अर्हन :- जैन धर्म का ‘आर्हत धर्म' नाम भी प्रसिद्ध रहा है। जो अर्हत के उपासक थे वे आर्हत कहलाते थे। अर्हन् शब्द श्रमण संस्कृति का बहुत प्रिय शब्द है। वे अपने तीर्थंकरों या वीतराग आत्माओं का अर्हन कहते हैं। ऋग्वेद में अर्हन शब्द का प्रयोग श्रमण नेता के लिए ही हुआ है - अर्हन् विभर्षि सायकानि धन्वानिष्कं यजतं विश्वरूपम। अर्हन्निदं दयसे विश्वसभ्वं न वा ओजीयो रुद त्वदस्ति।। ऋग्वेद में प्रयुक्त अन शब्द से प्रमाणित होता है कि श्रमण संस्कृति ऋग्वैदिक काल से पूर्ववर्ती है। 3.अपनी पुस्तक 'इंडियन फिलासफी' में पृष्ठ 278 में डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन लिखते हैं कि श्रीमद भागवत पुराण ने इस मत की पुष्टि की है कि ऋषभदेव जैन धर्म के संस्थापक थे। प्रमाण उपलब्ध हैं, जो बताते है कि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के बहुत पहले से ही ऐसे लोग थे जो प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव के भक्त थे। इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं कि वर्द्धमान या पार्श्वनाथ से कहीं पहले से ही जैन धर्म प्रचलित था। यजुर्वेद में ऋषभ, अजित एवं अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थंकरों का उल्लेख आता है। भगवत पुराण भी इस विचार का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैन धर्म के प्रवर्तक थे। इसीलिए अनादिकाल से चली आ रही जैन परंपरा में ऋषभदेव को 'आदिनाथ' कहकर भी पुकारा गया। 4. अपनी पुस्तक 'भारतीय धर्म एवं संस्कृति' में डॉ. बुद्धप्रकाश ने लिखा हैः महाभारत में विष्णु के सहस्त्र नामों में श्रेयांस, अनंत, धर्म, शांति और संभव नाम आते हैं और शिव के नामों में ऋषभ, अजित, अनंत और धर्म मिलते हैं। विष्ण और शिव दोनों का एक नाम 'सवत' दिया गया है। ये सब जैन तीर्थंकरों के नाम हैं। लगता है कि महाभारत के समन्वयपूर्ण वातावरण में तीर्थंकरों को विष्णु और शिव के रूप में सिद्ध कर धार्मिक एकता स्थापित करने का प्रयत्न किया गया हो। इससे तीर्थंकरों की परंपरा प्राचीन सिद्ध होती है। 5. मेजर जनरल फ्लेमिंग अपनी पुस्तक 'धर्मों का तुलनात्मक इतिहास' में लिखते है :जब आर्य लोग भारत आये तो उन्होंने जैन धर्म का विस्तृत प्रचलन पाया। जैन धर्म का मुख्य उद्देश्य है - सत्य का साक्षात्कार करना। सत्य की उपलब्धि में प्राचीन और नवीन का कोई महत्त्व नहीं होता, पर इतिहास की दृष्टि में प्राचीन और अर्वाचीन का महत्त्व होता है। प्राप्त प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैन धर्म प्राग्वैदिक है। जैन धर्म के प्राचीन होने की संपुष्टि हम दो तथ्यों के आधार पर भी कर सकते हैं - 1. पुरातत्त्व के आधार पर 2. साहित्य के आधार पर। पुरातत्त्व के आधार पर (ArcheologicalSources): पुरातत्त्ववेत्ता भी अब इस बात को स्वीकार करने लगे हैं कि भारत में वैदिक सभ्यता का जब प्रचार-प्रसार हुआ, उससे पहले यहां जो सभ्यता थी, वह अत्यंत समृद्ध एवं समुन्नत थी। प्राग्वैदिक काल (Pre-Vedic) का .. AAAAAAAA .........0000000000000 0 . . . . . . . . . . . . . . . . . . 9.88XUSor Jain Education International For Personal Trivate Use Only wwwlanefbrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118