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गंध, स्पर्श में अर्थात् शुभ पुदगलों में अनंत गुनी हीनता हो जाती है। इस आरे में पृथ्वी का स्वाद कहीं-2 नमक जैसा खारा होता है। स्पर्श कठोर होता हैं। भूमि में सरसता थोड़ी होती है और रस में मधुरता थोड़ी होती हैं। बरसात बरसती है तो धानादि पैदा होते है अन्यथा नहीं। आयुक्रम घटते-घटते उत्कृष्ट 125 वर्ष की, शरीर की अवगाहना सात हाथ की तथा पसलियां 16 रह जाती हैं। दिन में दो बार आहार करने की इच्छा होती है। ___पांचवे आरे में जम्बूस्वामी के मोक्ष जाने के बाद 10 बोलों को विच्छेद हुआ। 1. परम अवधिज्ञान 2. मनः पर्यव ज्ञान 3. केवल ज्ञान 4. परिहार विशुद्धि चारित्र 5. सूक्ष्म संपराय चारित्र 6. यथाख्यात चारित्र 7. आहारक लब्धि 8. पलाक लब्धि 9. उपशम-क्षपक श्रेणी 10. जिनकल्प। इसमें चार जीव एकाभवतारी होंगे। ____ पंचम आरे के अन्तिम दिन अर्थात् आषाढ शुक्ला पूर्णिमा को शक्रेन्द्र का आसन चलायमान होगा। तब देवेन्द्र शक्रेन्द्र आकाशवाणी करेंगे - हे लोगों। पांचवा आरा आज समाप्त हो रहा है। कल छठा आरा लगेगा सावधान हो जाओ जो धर्माराधना करनी हो सो करलो। यह सुनकर 1. दुपसह नामक आचार्य 2. फाल्गुनी नामक साध्वी 3. जिनदास श्रावक और 4. नागश्री श्राविका, यह चारों जीव, सर्वजीवों से क्षमा, याचना कर निःशल्य होकर संथारा ग्रहण करेंगे। ये चार जीव समाधिमरण से कालधर्म को प्राप्त होकर प्रथम देवलोक में उत्पन्न होंगे।
(6) दुषमा-दुषमा - पंचम आरे की पूर्णाहूति होते ही 21,000 वर्ष का छठा आरा आरंभ होता है। इसके आरंभ होने के साथ ही संवर्तक नामक बड़ी तेज भयंकर आंधी चलेगी। सर्वत्र मनुष्य पशुओं में हाहाकार मच जायेगा। चारों दिशाएं धूम और धूलि से अंधकारमय हो जायेगी। सूर्य अत्यधिक प्रचंड तापमय होगा और चन्द्रमा अत्यधिक शीतल होकर शीत उत्पन्न करेगा। अत्यंत सर्दी और गर्मी की व्याप्ति से लोग कष्ट पायेंगे। 1. धूल 2. पत्थर 3. अग्नि 4. क्षार 5. जहर 6. मल 7. बिजली इस तरह सात प्रकार की वर्षा होगी। प्रलय कालीन प्रचंड आंधी और वर्षा से ग्राम, नगर, किले, कुएं, बावडी, नदी, नाले, महल, पर्वत, उद्यान आदि नष्ट हो जायेंगे। वैताढ्य पर्वत, गंगा, सिंधु नदी, ऋषभकूट और लवण समुद्र की खाड़ी ये पांच स्थान रहेंगे। भरतक्षेत्र का अधिष्ठाता देव पंचम आरे के विनष्ट होते हुए मनुष्यों में से बीज रूप कुछ मनुष्यों को उठा ले जाता है तथा तिर्यंच पंचेन्द्रियों में से बीज रूप कुछ तिर्यंच पंचेन्द्रियों को उठाकर ले जाता है। वैताढ्य पर्वत के दक्षिण और उत्तर भाग में गंगा और सिंधु नदी है, उनके आठों किनारों पर नौ-नौ बिल हैं, सब मिल कर 8 गुणा 9 =72 बिल हैं। प्रत्येक बिल में तीन मंजिल हैं। उक्त देव उन मनुष्यों को इन बिलों में रख देता है।
छठे आरे में मनुष्य की आयु क्रमशः घटते-घटते 20 वर्ष और अवगाहना एक हाथ की रह जाती है। उतरते आरे में कुछ कम एक हाथ की अवगाहना और 16 वर्ष की आयु रह जाती है। मनुष्य के शरीर में आठ पसलियाँ और उतरते आरे में चार पसलियां रह जाती हैं। लोगों को अपरिमित आहार की इच्छा होती है। अर्थात् कितना भी खा जाने पर तृप्ति नहीं होती। रात्रि में
और दिन में ताप अत्यंत प्रबल होता है। इस कारण वे मनुष्य बिलों से बाहर नहीं निकल सकते सिर्फ सूर्योदय और सूर्यास्त के समय एक मुहूर्त के लिए बाहर निकल जाते हैं। उस समय गंगा और सिंधु नदियों का पानी सर्प के समान वक्र गति से बहता है। गाड़ी के दोनों चक्र के मध्यभाग जितना चौड़ा और आधा चक्र डूबे जितना गहरा प्रवाह रह जाता है। उस पानी में कच्छ मच्छ बहुत होते हैं। वे मनुष्य उन्हें पकड़-पकड़ कर नदी की रेत में गाड़कर अपने बिलों में भाग जाते हैं। शीत-ताप के योग से जब वे पक जाते हैं तो दूसरी बार आकर उन्हें निकाल लेते हैं। उस पर सबके सब मनुष्य टूट पड़ते हैं और लूटकर खा जाते हैं। जानवर मच्छों की बची हुई हड्डियों को खाकर गुजारा करते हैं। उस काल के मनुष्य दीन-हीन दुर्बल, दुर्गन्धित, रुग्ण, अपवित्र, नग्न, आचार-विचार से हीन और माता-भगिनी-पुत्री आदि के साथ संगम करने वाले होते हैं। छह वर्ष की स्त्री संतान का प्रसव करती है। कुतरी और शूकरी के समान वे बहुत परिवार वाले और महा क्लेशमय होते हैं। धर्म-पुण्य से हीन वे दुःख ही दुःख में अपनी संपूर्ण आयु पूरी करके नरक या तिर्यंच गति में चले जाते है। इस प्रकार 10 कोडा कोडी सागरोपम प्रमाण का यह अवसर्पिणी काल होगा।
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