Book Title: Jain Dharm Darshan Part 01
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 12
________________ ******************** धर्म का स्वरुप जैन धर्म के बारे में जानने से पूर्व, 'धर्म' शब्द को भलीभांति समझ लेना जरुरी है। क्योंकि धर्म के बारे में ज्यादा से ज्यादा गलत धारणाएं हजारों बरसों से पाली गयी है। धर्म न तो संप्रदाय का रूप है... न कोई पंथ या न किसी जाति के लिए आरक्षित व्यवस्था है। धर्म किसी भी व्यक्ति, समाज या स्थान विशेष के साथ जुड़ा हुआ नहीं है। जैन धर्म का परिचय धर्म वह है जो हमारे चित्त को शांत करें, हमारी उत्तेजनाओं को शमन करें और हमारी सहन-शक्ति को बढाएं। जो नियम आचरण अथवा चिन्तन व्यवहार में हमारी सहायता करता हैं वही धर्म कहलता हैं। जैन धर्म जीवन ज्योति का सिद्धांत है। वह अंतरंग जलता हुआ दीपक है जो सतत् कषायों के तिमिर को हटाने में सहायक होता हैं। यह सत्य है कि आत्मा का आत्मा द्वारा आत्मा के लिए, आत्म कल्याण सर्वोत्तम उपयोग ही धर्म है। जीवन को सही अर्थ में जानने, समझने के लिए धर्म ही एक माध्यम हो सकता है। वहीं धर्म वास्तविक तौर पर धर्म हो सकता है जो आत्मा को सुख-शांति एवं प्रसन्नता की पगडंडी पर गतिशील बनाएं। धर्म शब्द की व्याख्या भाषाशास्त्र की दृष्टि से धर्म शब्द 'धृ' धातु से बना है। 'धारणाद् धर्म' जिसका अर्थ होता है जीवन की समग्रता को धारण करना अथवा “दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मान धारयतीति धर्म" दुर्गति में पड़ते हुए आत्मा को धारण करके रखता है वह धर्म है। धर्म की बुनियाद पर पूरे जीवन की इमारत खड़ी होती है। धर्म के अभाव में आदमी अधूरा है, अपूर्ण है। इसीलिए वैदिक धर्म के महान ऋषि ने सारे संसार को सावधान करते हुए कहा"धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा" अर्थात धर्म सारे जगत का प्रतिष्ठान है, आधार है, प्राण है । धर्म को अंग्रेजी में रिलीजन (Religion) कहा जाता है। रिलीजन शब्द रि- लीजेर से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है फिर से जोड़ देना । धर्म मनुष्य को जीवात्मा से और आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला है। (जीव को शाश्वत शक्ति एवं सुख देने का अमोघ सर्वोत्तम माध्यम है) वह सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर उत्तरोतर उत्कर्ष की ओर आगे बढ़ाता है। ***** जैसे छोटी सी नाव मनुष्य को सागर से पार लगा देती है वैसे ही ढ़ाई अक्षर का धर्म शब्द आत्मा को भवसागर से पार लगा देता है अर्थात् आत्मा को परमात्मा बना देता है। कार्तिकेय अनुप्रेक्षा में कहा गया है : धम्मो वत्थुसहावों, खमादिभावों य दस विहो धम्मो । रयणतं च धम्मों, जीवाणं रखणं धम्मो || वस्तु का स्वभाव धर्म हैं। क्षमा आदि भावों की अपेक्षा से वह दस प्रकार का है। रत्नत्रय (सम्यग् दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग् चारित्र) भी धर्म है तथा जीवों की रक्षा करना भी धर्म है। सर्वप्रथम वस्तु स्वभाव को धर्म कहा गया है। जैसे आग का धर्म जलाना है, पानी का धर्म शीतलता है। यहां धर्म से हमारा तात्पर्य वस्तु के स्वाभाविक गुणों से होता हैं। किन्तु जब यह कहा जाता है कि दुखी एवं पीड़ितजनों की सेवा करना मनुष्य का धर्म है अथवा गुरू की आज्ञा का पालन शिष्य का धर्म है तो, इस धर्म को कर्त्तव्य या दायित्व कहा जाता है। इसी प्रकार जब हम यह कहते है कि मेरा धर्म जैन है या उसका धर्म ईसाई है तो हम एक तीसरी ही बात कहते है। यहां धर्म का मतलब है किसी दिव्य सत्ता, सिद्धांत या साधना पद्धति के प्रति हमारी श्रद्धा आस्था या विश्वास। अक्सर हम धर्म से यही तीसरा अर्थ लेते है। जबकि यह तीसरा अर्थ धर्म का अभिरूढ़ अर्थ है, SABGAsaralata 6 06 Ap

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