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जैनदर्शन
और फल तैयार होते हैं, इसी प्रकार जीवन - विकास भी विकासगामी अनेकानेक स्थितियों में से गुजरने के बाद सधता है । घड़े की उत्पत्ति से पूर्व मिट्टी के पिण्ड में से जो उत्तरोत्तर परिणाम होते जाते हैं, उनमें घड़े का स्वरूप उत्तरोत्तर अधिकाधिक विकसित होता जाता है और अन्तिम परिणाम में जब घड़े की उत्पत्ति में रही हुई न्यूनतम कमी दूर हो जाती है तब चट घड़ा प्रकट होता है । इस प्रकार घड़े की उत्पत्ति से पूर्व क्रमशः होनेवाले भिन्न-भिन्न आकार - परिणामों की परम्परा घड़े की उत्पत्ति के लिये अत्यन्त आवश्यक है । यह कार्य की सिद्धि में असाधारण योग प्रदान करती है, अतः इसका निर्देश 'असाधारण कारण' के रूप से किया जाता है । इस असाधारण कारण का निर्देश कार्य सिद्धि की क्रमिक गति का ख्याल कराता है ।
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कार्यसिद्धि से पूर्व उत्तरोत्तर विकसनशील भिन्न-भिन्न परिणामधारा वस्तुतः उपादान की ही परिणामधारा है । उपादान की परिणामधारा का अन्तिम पक्व फल है कार्य । मिट्टी के पिण्ड की परिणामधारा का अन्तिम पक्व फल
घड़ा
इस पर से ज्ञात होगा की कार्य की सिद्धि के लिये कार्य एवं उसके उपाय का सम्यग्ज्ञान होना चाहिए तथा उस उपाय का यथार्थ रूप से प्रयोग करना भी आना चाहिए ।
अब आध्यात्मिक जीवनविकास के बारे में विचार करें । आध्यात्मिक जीवनविकास साधने का श्रेष्ठ सामर्थ्य मनुष्य में है, यह समझ कर इस साधना का अभिलाषी जो सज्जन इसके लिये तैयार होता है । उसका ध्येय सम्पूर्ण वीतरागता होता है । वीतरागता अर्थात् रागादि दोषों का विदारण । ज्ञानस्वरूप आत्मा में ज्ञान तो सत्तारूप से भरा पड़ा है, परन्तु सबसे बडी विकट - समस्या तो उसके आवारक आवरणों हटाने में है । यह एक अतिमहान् पुरुषार्थ का कार्यक्षेत्र होने से ज्ञानदृष्टि सम्पन्न पुरुषार्थपरायण मुमुक्षु ही इस कार्य को सिद्ध कर सकता है । सम्पूर्ण वीतरागता आने पर आत्मा परमात्मा बनता है । लगभग सभी दर्शनिक वीतरागता के तत्त्व को परमध्येयरूप से मान्य रखते है । न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, बौद्ध, वेदान्त ये सभी अपने अपने दर्शनशास्त्र के प्रणयन का परम और चरम उद्देश निःश्रेयस का अधिगम बतलाते हैं । हाँ,
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