Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 446
________________ षष्ठ खण्ड ४१५ दिखाई देता है वह भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों के कारण है। उनके बीच वास्तविक भेद कुछ भी नहीं है, क्योंकि भव-व्याधि के इन महान् वैद्यों ने प्राणियों का भवरोग जिससे दूर हो वैसा उपदेश दिया है । इस श्लोक के आगे-पीछेका हरिभद्र का वाणीप्रवाह द्रष्टव्य है । जैनधर्म की प्रकृति का परिचय करने पर मालूम हो सकता है कि वह वस्तुतः एक साम्प्रदायिक चौका नहीं है, वह तो जीवन है-जीवनविधि अथवा जीवनचर्या है । यद्यपि तीर्थंकरदेव ने चतुर्विध ( साधु-साध्वी- श्रावकश्राविकारूप) संघ की स्थापना की है और आचार-क्रिया की पद्धति भी प्रदर्शित की है, और व्यवहारमार्ग के लिये जनसमुदाय को मार्गदर्शन मिले इस कल्याणरूप हेतु से संघ का आयोजन तथा आचार-क्रिया की प्रणाली जनता के सम्मुख रखनी पड़ती है, फिर भी इसका अर्थ यह नहीं है कि जो इस संघ में हो अथवा इसप्रकार की आचार-क्रिया की प्रणाली का अनुपालन करता हो वही जैन कहलाए । जो इस संघ का सदस्य न हो और तथोक्त क्रिया आदि का पालन न करता हो वह भी (वह चाहे जिस देश, जाति, कुल, वंश सम्प्रदाय का क्यों न हो) यदि सत्य-अहिंसा के सन्मार्ग पर चलता हो तो जैन है-अवश्य ही जैन है और वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है ऐसा जैनधर्म का कथन है, तीर्थंकरदेव और उनके शासन का कथन है। इस बात का विशद निरूपण इस पुस्तक में अन्यत्र हो गया है । १. हेय, हेयहेतु, हान और हानोपाय-यह योग्दर्शन का वर्गीकरण है । हेय दुःख है, इसका कारण [हेयहेतु] अविद्या है, दु:ख का समूल नाश हान है और उसका उपाय [हानोपाय] विवेकख्याति है । दुःख, दु:खसमुदय, दुःखनिरोध और मार्ग-यह बुद्ध का चतुर्ग्रह है । दुःख का कारण तृष्णा है । इसे 'दुःखसमुदाय' भी कहते हैं । दुःखनिरोध अर्थात् दुःख के नाश का 'मार्ग' तृष्णा का नाश है । जिस मार्ग से तृष्णा का नाश हो सकता है उस मार्ग को भी दुःखनाश का मार्ग कह सकते हैं । न्यायवैशेषिक दर्शन में संसार, मिथ्याज्ञान, तत्त्वज्ञान और अपवर्ग इस तरह तथा वेदान्तदर्शन में संसार, अविद्या, ब्रह्मभावना और ब्रह्मसाक्षात्कार इस प्रकार चतुर्वर्ग का निरूपण किया गया है। जैन-परिभाषा में 'बन्ध' हेय है। इस हेय का हेतु 'आस्रव' है । 'संवर', 'निर्जरा' और मोक्ष' ये हान हैं और मनोवाक्कायगुप्ति, सत्य, संयम, तप, त्याग आदि इस हान के उपाय हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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