Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

View full book text
Previous | Next

Page 454
________________ षष्ठ खण्ड ४२३ इसके समग्र वाङ्गमय का चरम और परम सार सूचित करने वाली यह सीख स्पष्टरूप से कहती है कि जिस किसी वाद से [द्वैत अथवा अद्वैत, ईश्वरकर्तृत्व अथवा प्राकृतिक कर्तृत्व आदि विभिन्न वादों में से जिस किसी एक वाद का अवलम्बन लेने से] और जिस किसी क्रियापद्धति अथवा आचारमार्ग से सच्चारित्र की साधना होती हो, सच्चारित्र की साधना में अनुकूलता प्रतीत होती हो और वीतरागता की ओर प्रगति हो सकती हो उस रीति से चारित्र की साधना करो और वीतरागता की दिशा में प्रगति करो'मित्ती मे सव्वभूएसु' को जीवनमंत्र बनाकर, अर्थात् सर्वभूतमैत्री के सद्गुण का विकास करते रहो । अर्थात्-जैसे रोगावस्था में जिस-जिस उपचार से शमन हो सके वे सभी उपचार रोग की शान्ति में उपायरूप हैं, उसी तरह मोक्षसाधना में जिस-जिस साधन से दोषों को रोका जा सकता हो और जिस-जिस साधन से पहले के कर्मों का क्षय किया जा सकता हो वे सभी साधन मोक्ष के उपाय हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 452 453 454 455 456 457 458