Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 415
________________ ३८४ जैनदर्शन का एक जबरदस्त स्थान है । ३. पूर्वकर्म सुख-दुःख और उनसे सम्बद्ध विविध दशाएँ कर्म की विचित्रता पर अवलम्बित हैं । करने जाये सीधा और हो उलटा अथवा करें उलट और पड़े सीधा-इन सबके पीछे कर्म का सामर्थ्य है । आकस्मिक लाभ अथवा आकस्मिक हानि कार्मिक बल का अद्भूत निदर्शन है । संसारवर्ती सब जीव कर्म के बन्धनों से बद्ध होने के कारण तदनुसार भिन्न-भिन्न परिस्थितियों का अनुभव उन्हें करना पड़ता है, भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में से उन्हें गुजरना पड़ता है । कर्म के प्राबल्य से सब कोई परिचित है । क्ष्माभृदरङ्ककयोर्मनीषिजडयोः सद्रूपनिरूपयोः श्रीमदुर्गतयोर्बलाबलवतोर्नीरोगार्तयोः । सौभाग्यासुभगत्वसङ्गमजुषोस्तुल्येऽपि नृत्वेऽन्तरं यत्तत्कर्मनिबन्धनं तदपि नो जीवं विना युक्तिमत् । -देवेन्द्रसूरिकृत प्रथम कर्मग्रन्थ की स्वोपज्ञ टीका में से उद्धृत । अर्थात् राजा और रंक, मेधावी और मूर्ख, खूबसूरत और बदसूरत, धनी और दरिद्र, बलवान् और निर्बल, स्वस्थ और रोगी तथा सौभाग्यवान् और दौर्भाग्यवान् में मनुष्यत्व समान होने पर भी इस तरह का जो नानाविध भेद देखा जाता है वह कर्म के कारण है । और जीव के बिना कर्म क्या ? इसलिये कर्म की सिद्धि के साथ ही आत्मा भी सिद्ध हो जाता है । इस पुस्तक के समूचे चतुर्थ खण्ड में कर्मविषयक विवेचन किया गया है । पुण्य-पापरूपकर्मसम्बन्धी विचार-धारा का वहाँ पर निरूपण किया गया है। मनुष्य स्वाभाविक रूप से अपूर्ण है । वह चाहे-जितनी कुशलता अथवा सावधानी क्यों न रखे, परन्तु प्राकृतिक असावधानता और शरीरसुलभ चपलता थोड़ी बहुत उसमें रहने की ही । अतः वह अपनी अपूर्णता अथवा दुर्बलता का भोग कभी-कभी हो ही जाता है। अपनी ही अंगुली से अपनी आँख, अपने दाँतों से अपनी जीभ किसी समय अकस्मात् ऐसी दब जाती www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International

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