Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 442
________________ षष्ठ खण्ड ४११ और भी देखो उदारता के मनोहर उद्गारश्रीमान् हेमचन्द्राचार्य का भवबीजांकुरजनना रागाद्यः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ यह श्लोक उन्होंने प्रभासपाटन में सोमनाथ महादेव की मूर्ति के सम्मुख स्तुति करते समय कहा था ऐसी परम्परा गत आख्यायिका है ।। यह स्तुतिश्लोक कहता है कि__ भव-संसार के कारणभूत राग-द्वेष आदि समग्र दोष जिसके क्षीण हो गये हैं वह चाहे ब्रह्मा, विष्णु, शंकर अथवा जिन हो उसे मेरा नमस्कार है । मूर्ति हमारे वीतरागता के उच्चतम आदर्श परमात्मा की वीतरागता का प्रतिभासक-प्रतीत है। इस प्रतीक द्वारा आदर्श (परमात्मा) की पूजा-भक्ति हो सकती है। जब द्रोणाचार्य ने भील एकलव्य को धनुर्विद्या सिखलाने का इनकार कर दिया तब उस एकलब्य ने, जैसा आया वैसा, द्रोणाचार्य का प्रतीक स्थापित करके और उसमें गुरुरूप से द्रोणाचार्य का आरोप करके श्रद्धापूर्वक धनुर्विद्या सीखनी शुरू की और अन्त में द्रोणाचार्य के अन्यतम एवं प्रियतम शिष्य अर्जुन से भी आगे बढ़ जाय ऐसी धनुर्विद्या उसने प्राप्त की । यह उदाहरण कितना सूचक है ।। आदर्श को किस नाम से पूजना इस बारे में भी प्रस्तुत श्लोक स्पष्ट प्रकाश डालता है। आदर्श का पूजन और भक्ति अमुक ही नाम से हो ऐसा कुछ नहीं है । चाहे जो नाम देकर और चाहे जिस नाम का उच्चारण करके आदर्श की पूजा हो सकती है। श्री यशोविजयजी महाराज भी परमात्मपच्चीसी में कहते हैं कि बुद्धो जिनो हृषीकेशः शम्भुर्ब्रह्मादिपुरुषः । इत्यादिनामभेदेऽपि नार्थतः स विभिद्यते ॥ अर्थात्-बुद्ध, जिन, हृषीकेश, शंभु, ब्रह्मा, आदिपुरुष आदि भिन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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