Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 440
________________ षष्ठ खण्ड ४०९ एवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि । कपिलोक्तत्वतश्चैव दिव्यो हि स महामुनिः ॥४४॥ अर्थात्---इस तरह (प्रकृतिवाद का जो रहस्य बतलाया है उस तरह) प्रकृतिवाद भी यथार्थ समझना । और, वह कपिल का उपदेश है, अतः सत्य है; क्योंकि वह दिव्य महामुनि थे । इसके बाद छठे स्तबक में क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद की कडी आलोचना करके और इन वादों में आनेवाले अनेक दोषों को दिखलाकर अन्त में आचार्य महाराज वस्तुस्थिति का निर्देश करते हैं कि अन्ये त्वभिदधत्येवमेतदास्थानिवृत्तये । क्षणिकं सर्वमेवेति बुद्धेनोक्तं न तत्त्वतः ॥५१॥ विज्ञानमात्रमप्येवं बाह्यसङ्गनिवृत्तये । विनेयान् कांश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनार्हतः ॥५२॥ एवं च शून्यवादोऽपि सद्विनेयानुगुण्यतः । अभिप्रायत इत्युक्तो लक्ष्यते तत्त्ववेदिना ॥५३॥ अर्थात्-मध्यस्थ पुरुषों का ऐसा कहना है कि 'सब क्षणिक है' ऐसा बुद्ध ने वास्तविकता की दृष्टि से नहीं कहा, किन्तु रोगोत्पादक विषयवासना को दूर करने के तथा वैराग्योत्पादक अनित्य-भावना को जागरित करने के उद्देश से कहा है । विज्ञानवाद भी बाह्य विषयासक्ति को दूर करने के उद्देश से योग्य शिष्यों अथवा श्रोताओं को लक्ष में रखकर कहा गया है । शून्यवाद भी योग्य शिष्यों को लक्ष में रखकर वैराग्य की पुष्टि के आशय १. द्रव्यरहित पर्याय नहीं है और पर्यायरहित द्रव्य नहीं है। प्रतिक्षण प्रत्येक वस्तु परिवर्तित होती रहती है, समूचा द्रव्य प्रतिक्षण बदलता रहता है यह बात जैनों को और करीबकरीब दूसरे सबको मान्य है और यह प्रतिगोचर भी है । अतः इस दृष्टि को सम्मुख रखकर महर्षि बुद्ध ने वस्तु को (समग्र जगत् को ) क्षणिक कहा हो यह बहुत सम्भव है । समग्र जगत्, जहाँ नज़र डालो वहाँ, बदलता ही दृष्टिगोचर होता है । अतः किसी भी तत्त्ववेत्ता, द्रष्टा अथवा ऋषि-मुनि के मुख से ऐसा अभिप्राय [सापेक्ष रूप से भी] प्रगट होना अत्यन्त स्वाभाविक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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