Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 443
________________ ४१२ जैनदर्शन भिन्न नाम होने पर भी इन सबका अर्थ एक ही है । परमात्मा इन सब नामों से अभिहित होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि तुम चाहे जिस मूर्ति का और चाहे जिस नाम का अवलम्बन लो, किन्तु जिनकी पूजनीय मूर्ति का आकारप्रकार अथवा रचनाप्रकार भिन्न हो अथवा जो अपने आदर्श की पहचान के लिये भिन्न नाम का उपयोग करते हों उनके साथ आकार-प्रकार की अथवा नाम की भिन्नता की वजह से विरोध करने का अथवा झगड़ने का कोई कारण नहीं है । इतना ही नहीं, इन बातों को लेकर उनके साथ के हमारे मैत्रीपूर्ण व्यवहार में तनिक भी फर्क नहीं आना चाहिए । वीतरागता प्रत्येक मनुष्य का अन्तिम साध्य होना चाहिए— इस मुख्य मुद्दे को भूले बिना जैनधर्म अन्य सम्प्रदायों की तात्त्विक मान्यता एवं आचार १. 'बुद्ध' अर्थात् जिसकी बुद्धि पूर्ण एवं शुद्ध हो अथवा परम तत्त्व का पूर्ण ज्ञाता । 'जिन' अर्थात् रागादि सब दोषों को जीतनेवाला । 'हृषीकेश' अर्थात् [ हृषीक का अर्थ है इन्द्रिय और ईश यानी स्वामी इस तरह ] इन्द्रियों का स्वामी अर्थात् पूर्ण जितेन्द्रिय । ‘शम्भु' अर्थात् परम सुख का उद्भवस्थान । 'ब्रह्मा' अर्थात् पवित्र ज्ञानमूर्ति । 'आदिपुरुष' अर्थात् सर्वोत्तम पुरुष । इसी प्रकार 'विष्णु' का अर्थ है अपने उच्च ज्ञान से विश्व को व्याप्त करनेवाला आत्मा । 'शंकर' अर्थात् सुखकारक अथवा सुखकारक मार्ग दिखलानेवाला । 'हरि और 'हर' अर्थात् प्राणियों के दुःखों को हरनेवाला । 'महादेव' अर्थात् पूर्ण प्रकाश से देदीप्यमान और 'अर्हन्' अर्थात् पूज्यता का परम धाम । रागादिजेता भगवान् ! जिनोऽसि बुद्धोऽसि बुद्धि परमामुपेतः । कैवल्यचिद्व्यापितयाऽसि विष्णुः शिवोऽसि कल्याणविभूतिपूर्णः ॥ (लेखक की अनेकान्तविभूति - द्वात्रिंशिका ) अर्थात् — हे प्रभो ! तू रागादि दोषों का जेता होने से जिन है, परम बुद्धि को प्राप्त होने से बुद्ध है, केवल्यज्ञान द्वारा व्यापक होने से विष्णु है और कल्याणविभूति से पूर्ण होने से शिव है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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