Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

View full book text
Previous | Next

Page 441
________________ ४१० जैनदर्शन से कहा गया प्रतीत होता है । आगे जाकर वेदान्त के अद्वैतवाद की वेदान्तानुयायी विद्वानों ने जो विवेचना की है उसके अनुसार उस पर दोष बतलाकर आठवें स्तबक में आचार्य महाराज कहते हैं कि अन्ये व्याख्यानयन्त्येवं समभावप्रसिद्धये । अद्वैतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्त्वतः ॥८॥ अर्थात्-अन्य महर्षि ऐसा कहते हैं कि अद्वैत का जो उपदेश दिया गया है वह अद्वैत की वास्तविकता बतलाने के लिये नहीं, किन्तु समभाव की प्राप्ति के उद्देश से दिया गया है । मतलब कि जगत् में जीव मोहाधीन होकर जो रागद्वेष, करते हैं वह सब अविद्या का ही विलास है ऐसा सूचित करके इन दोषों को रोकने के लिये, शत्रु,-मित्र को एक दृष्टि से देखने के लिये इस प्रकार की समभाव की सिद्धि के लिये 'आत्मैवेदं सर्वम्,' 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' [सब कुछ आत्मा ही है । सब ब्रह्म ही है ।] इत्यादि अद्वैत-उपदेश दिया गया है । अद्वैतशास्त्र का उपदेश संसार-प्रपंच को असार मानकर सबको आत्मदृष्टि से देखने को कहता है । इस तरह अन्यान्य दर्शनों के सिद्धान्तों की तटस्थ दृष्टि से परीक्षा करने के साथ-साथ शुद्ध दृष्टि से उनका समन्वय करने का भी प्रयत्न करना वस्तुतः चित्तशुद्धि एवं निःसर्ग-वत्सल प्रकृति का प्रशंसनीय निदर्शन है । अन्य दर्शनों के धुरन्धरों का महर्षि, महामुनि, ज्ञानी, महामति और ऐसे ही दूसरे ऊँचे शब्दों द्वारा सम्मानपूर्वक अपने ग्रन्थों में उल्लेख करना, दूषित सिद्धान्तवालों के मत का खण्डन करते समय भी उनके लिये हलके शब्दों का व्यवहार न करना और सम्पूर्ण सभ्यता एवं शिष्टता के साथ प्रसन्नशैली से विरोधी को प्रबुद्ध करने की अपनी स्नेहाई वृत्ति को पुण्यतोया भागीरथी के निर्मल प्रवाह की भाँति सतत बहती रखना—यह जैन महर्षियों का महान् औदार्य है । धार्मिक अथवा दार्शनिक वादयुद्ध चलाते समय भी विरोधी दार्शनिकों के साथ अपना आत्मीयभाव (समभाव) स्वस्थ रहे यह कितना सात्त्विक हृदय ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458